उत्तराखंड के अस्तित्व (Existence of Uttarakhand) में आने के बाद भी नहीं संवरी पहाड़ियों की स्थिति
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
विशाल प्राकृतिक संपदा से सरसब्ज हिमालयी क्षेत्रों की विशिष्ट भौगोलिक प्रकृति विकास के प्रचलित मॉडल से तालमेल नहीं बिठा पा रही है। वन, जल, नदियों, जैव विविधता के विपुल भंडार के बावजूद हिमालयी क्षेत्रों को खुद की जरूरतें पूरी करने के लिए न पानी है और वनों पर हक-हकूक। खेती के आधुनिक तौर-तरीकों ने देश की तस्वीर बदल दी, लेकिन हिमालय में पुरानी और परंपरागत खेती खुशहाल जीवन की बात तो दूर, दो जून की रोटी का जुगाड़ करने में पिछड़ गई है। विकास के जरूरी ढांचागत सुविधाओं के विस्तार के कदमों को पर्यावरणीय बंदिशों ने थाम दिया है। जलवायु परिवर्तन जैव विविधता और आजीविका के मौजूदा संसाधनों के सामने आंखें तरेर रहा है। वनों और वन्यजीवों को बचाने की वैश्विक मुहिम में हिमालयी मानव के अस्तित्व पर नया संकट खड़ा हो चुका है।
आजादी के बाद से आज तक हुए नीति नियोजन ने यह भी साबित कर दिया कि हिमालयी चुनौती से निपटने को खुद हिमालयी राज्यों को एकजुट होकर उठ खड़ा होना होगा। हिमालयी राज्यों के सामने सबसे बड़ी चुनौती सतत विकास की है। देश के शेष मैदानी राज्यों की तुलना में हिमालयी राज्यों को विकास के मोर्चे पर एक-एक इंच के लिए जूझना पड़ रहा है। पर्वतीय और दुर्गम क्षेत्र होने की वजह से सड़कें, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य तमाम बुनियादी सुविधाओं के विस्तार में पर्यावरणीय अड़चनें तो हैं ही,अधिक धन भी खर्च हो रहा है। प्राकृतिक संसाधनों में समृद्ध हिमालय वित्तीय मोर्चे पर बेहद कमजोर है। इस वजह से अपने बूते बुनियादी सुविधाओं का विस्तार हिमालयी राज्यों के लिए मुमकिन नहीं हो पा रहा है। निर्माण कार्यों की लागत काफी ज्यादा है। वहीं निर्माण कार्यों के लिए तय की जाने वाली दर (शिड्यूल ऑफ रेट) हिमालयी क्षेत्र में आने वाली लागत के बजाय अन्य मैदानी राज्यों की तर्ज पर तय की जा रही हैं। केंद्रपोषित योजनाओं में भी यही हो रहा है। इस वजह से ये योजनाएं भी पहाड़ चढ़ने पर हांफ रही हैं। हिमालयी राज्य अपने सतत विकास के लिए अलहदा नीति नियोजन चाहते हैं।
उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद भी पहाड़ की स्थिति में रत्तीभर भी बदलाव नहीं आया। ये बात अलग है कि गुजरे 22 सालों में राज्य ने ऊंची विकास दर का लक्ष्य हासिल किया है, लेकिन पर्वतीय इलाकों में इसे लेकर आंशिक सफलता ही मिल पाई। सरकार भी इसे स्वीकारती है कि विकास की यात्रा में पहाड़ पिछड़ा है। यही कारण भी है कि राज्य में पलायन,आजीविका और आपदा एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आए हैं। स्थिति ये है कि पर्वतीय इलाकों से पलायन का सिलसिला थमने की बजाए और तेज हुआ है। शिक्षा एवं रोजगार के समुचित अवसरों के साथ ही मूलभूत सुविधाओं के अभाव समेत अन्य कारणों के मद्देनजर बेहतर भविष्य के लिए पलायन तेज हुआ है। इसके चलते राज्य के तीन हजार गांव खाली हो गए हैं तो ढाई लाख से अधिक घरों में ताले लटके हुए हैं। बावजूद इसके पलायन थामने के उपायों पर गंभीरता से कदम नहीं उठाए गए। यही नही, गांवों में जो लोग हैं, वे कुदरत के कहर से जूझ रहे हैं। ठीक है कि आपदा पर किसी का वश नहीं चलता, लेकिन आपदा के असर को न्यून तो किया ही जा सकता है। हालांकि, इस क्रम में प्रदेश में आपदा प्रबंधन मंत्रालय अस्तित्व में है, लेकिन वक्त पर मशीनरी बेबस नजर आती है। ऐसा एक नहीं अनेक मौकों पर सामने आ चुका है। साफ है कि पलायन, आपदा और आजीविका के रूप में पहाड़ की यह चुनौतियां ऐसी हैं, जिनके समाधान की दिशा में बेहद गंभीरता और मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ कदम उठाने की जरूरत है। यही वजह भी है कि राज्य सरकार मंथन से निकलने वाले निष्कर्षों को लेकर नीति में शामिल किया जाएगा। इस संबंध में संकल्प लेकर इसे सिद्धि तक पहुंचाने का इरादा सरकार ने जाहिर किया है। यदि सरकार इन तीन चुनौतियों से निबटने की दिशा में ठोस कार्ययोजना तैयार कर इसे धरातल पर उतारती है तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी।
उत्तराखंड में आठ-आठ बार मुख्यमंत्री बदले गए हैं और अनगिनत लुभावने नारे आ गए हैं, जैसेः देवभूमि, पर्यटन प्रदेश, हर्बल प्रदेश, जैविक प्रदेश, ऊर्जा प्रदेश आदि-आदि। लेकिन ये नारे सिर्फ छलावा साबित हुए। इनके पीछे ठोस समझ, सुचिंतित योजना और अमल में लाने की इच्छाशक्ति नहीं बनी है। पहाड़ को अपना राज्य इसलिए भी चाहिए था कि लोग कहते थे कि लखनऊ दूर है। अलग राज्य की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए उत्तराखंड के जनकवि और अलग राज्य निर्माण आंदोलन में सक्रिय रहे संस्कृतिकर्मी कहते हैं, अलग राज्य इसलिए ज़रूरी था, क्योंकि गोरखपुर की और गोपेश्वर की एक ही नीति नहीं बन सकती है। इसलिए राज्य अलग बनता है और उसकी व्यवस्था उसी के अनुसार से होती है तो वो सही हो पाएगा वरना नहीं हो पाएगा। भौगोगिक स्तर पर उत्तराखंड हिमालय के अन्य राज्यों से कुछ भिन्न- सा है, खासकर अगर हम उसकी तुलना उसके पड़ोस के राज्य हिमाचल प्रदेश से करें तो। उत्तराखंड के पास पहाड़ी इलाकों के अलावा मैदानी इलाका भी है, जिसे तराई और भाभर कहते हैं। इस संदर्भ में इस मध्य हिमालयी राज्य के विकास के लिए विशेष प्रकार के विजन की आवश्यकता है। यानी पहाड़ी और मैदानी इलाकों के लिहाज से विकास की एक संतुलित और मुक्कमल योजना। लेकिन हो क्या रहा है कि पहाड़ी जिले लगातार आर्थिक विकास में पिछड़ते जा रहे हैं। विकास और संसाधनों के असंतुलन को उत्तराखंड सरकार के ही आधिकारिक आंकड़ों से समझा जा सकता है।
इसको पहले सार्वजनिक वितरण प्रणाली के उदाहरण से समझते हैं। उत्तराखंड मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग, चंपावत, चमोली और टिहरी गढ़वाल- जैसे पहाड़ी जिलों की जनता की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) पर निर्भरता बहुत अधिक है। इन जिलों की 80 प्रतिशत आबादी इस सुविधा का इस्तेमाल महीने में एक से ज्यादा बार करती है। इनकी तुलना में देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंह नगर-जैसे मैदानी जिलों की आबादी की पीडीएस पर निर्भरता कम है। एक माह में एक से अधिक बार पीडीएस के इस्तेमाल का इनका आंकड़ा क्रमशः 66.1, 66.8 और 70.4 प्रतिशत है। यह आंकड़ा दर्शाता है कि पहाड़ी इलाकों में गरीबी मैदानों क्षेत्रों से कहीं अधिक है।
इसके अलावा रिपोर्ट साफ तौर पर कहती है कि राज्य के सामने जो चुनौतियां हैं, वे हैं – असमानताओं की खाई का लगातार चौड़ा होना, रोजगार के अवसरों का सिकुड़ना, मजबूरी में होने वाला पलायन, अनियोजित शहरीकरण, स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा के अवसरों तक अपर्याप्त पहुंच और साथ ही पर्यावरण की चुनौतियां। जाहिर है, इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थितियां कितनी विकट हो चुकी हैं। वहीं, मानव विकास के सूचकांकों में पहाड़ी जिलों के मुकाबले देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर-जैसे तीन मैदानी जिले बेहतर स्थिति में हैं। यही नहीं, असमानता की यह खाई लगातार चौड़ी हो रही है। उत्तराखंड के 13 जिलों में अगर औद्योगिक गतिविधियों को तस्वीर देखें तो राज्य के अधिकांश उद्योग देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर में स्थित हैं और पहाड़ी जिले इससे वंचित हैं। पहाड़ी इलाकों में गरीबी आम है और उसका स्तर बहुत गंभीर है। वहीं, राज्य के शहरी इलाकों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की स्थिति और भी ज्यादा भयावह है। संसाधनों के असमान वितरण और असंतुलित विकास को प्रति व्यक्ति आय के संदर्भ से भी समझा जा सकता है।
(लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)