उत्तराखंड (Uttarakhand) में विकास के लिए वैज्ञानिक सोच वाली नीतियां

उत्तराखंड (Uttarakhand) में विकास के लिए वैज्ञानिक सोच वाली नीतियां

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

आविभाजित उत्तर प्रदेश से पर्वतीय क्षेत्रों की उपेक्षा का दंश ही अलग राज्य के आंदोलन के मूल में रहा। आंदोलनकारियों पर हुए तमाम तरह के दमन और संघर्षों के बाद 9 नवंबर सन् 2000 को देश के 27 वें राज्य के रूप में उत्तरांचल का गठन हुआ।राज्य की भावनाओं के अनुरूप उस समय की तत्कालीन केन्द्रीय सरकार ने सन् 2007 में राज्य का नाम बदलकर उत्तराखंड किया। राज्य गठन के23 वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश से अलग हुए पर्वतीय अंचल जिसका कि 93 प्रतिशत पर्वत एवं 64 प्रतिशत वन अच्छादित क्षेत्र पड़ता है, 9 नवम्बर सन् 2000 में इस क्षेत्र को एक नए राज्य के रूप में संयोजित इसलिए किया गया था।

उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के पीछे का एक हेतु यह भी था कि यहां का त्वरित विकास एवं सक्षम प्रशासन हो यहां की ऐसा विकास की गति द्रुतगति से आगे बढ़े। उत्तर प्रदेश से अलग हुए उत्तराखंड के साथ मध्यप्रदेश से अलग छत्तीसगढ़ और बिहार से अलग कर झारखंड दो अन्य राज्य एक साथ बनाये गये थे। इन राज्यों के बनने से यह माना जा रहा था कि छोटे राज्य बनने से इन पिछड़े क्षेत्रों में विकास को गति मिल सकती है।विकास के साथ-साथ इन नए राज्यों की जनता में एक ऐसे नेतृत्व पाने की आकांक्षा थी,जो उनका हो,उनको जान-समझ सकें एवं उनके प्रति संवेदनशील हो। इन राज्यों को बने २१ वर्ष का एक लंबा कालखंड पूरा हो चुका है। इन इक्कीस वर्षों में विकास एवं राजनीति के संदर्भ में इन छोटे राज्यों के प्रदर्शन का एक मूल्यांकन किया ही जाना चाहिए। अगर अन्य राज्यों की तुलना में गहराई से मूल्यांकन किया जाए,तो उत्तराखंड की विकास गति अन्य छोटे राज्यों की तुलना में बेहतर मानी जाएगी। उत्तराखंड की आर्थिक विकास दर राष्ट्रीय आर्थिक विकास दर से भी बेहतर मानी गई है।

उत्तराखण्ड को विकसित करने वाली नीतियां बनाने वाली संस्थाओं ने उत्तराखण्ड में प्राकृतिक रूप में प्रदत्त जल, जंगल, जमीन, वनस्पति, जीव, जन्तु, आदि को अपनी नीतियों की प्राथमिकताओं से अलग रखा है, यदि ऐसा हुआ नहीं होता तो उत्तर प्रदेश पर्वतीय विकास परिषद के गठन से लेकर राज्य बनने के बाद आजतक के इन45 वर्षों तक चिंतनीय स्थिति नहीं होती।प्रकृति ने उत्तराखण्ड को प्रचुर मात्रा में संसाधन दिए हैं। जिनसे वह अपना ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर आपूर्ति में भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। उत्तराखण्ड का धरातलीय विस्तार समतल मैदान, तराई से भावर, शिवालिक, दून, मध्य उच्च तथा ट्रान्स हिमालय तक फैला है, मैदान से उच्च हिमालयी क्षेत्र की ओर बढ़ने पर मुख्यतः चार भ्रंशों एचएफएफ, एमबीटी, एमसीटी एवं टीएचटी से गुजरना पड़ता है।ये भ्रंश क्षेत्र भूगर्भिक दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील एवं पारिस्थितिकीय दृष्टि से अत्यंन्त नाजुक हैं, उत्तराखण्ड हिमालय विश्व के नवीनतम मोड़दार पर्वतीय भागों में से एक है, जो अभी भी निरन्तर ऊपर उठ रहा है। विर्वतनिक गतिविधियों के कारण धरातल के अन्दर एवं बाहर हर समय हलचल बनी रहती है, इस हलचल से कमजोर क्षेत्रों में स्वतः भूस्खलन, भूकम्प और इनसे जनित भयंकर बाढ़़ की घटनायें होती रहती हैं।

हाल ही में मीडिया से चर्चा में आये जोशीमठ शहर की धंसने एवं यहां के भवनों में आई दरारों का कारण भी वैज्ञानिकों का मानना है कि क्षेत्र में बन रही जल विद्युत परियोजनाओं की सुरंगें ही हैं। स्थानीय लोगों एवं अधिकांश वैज्ञानिकों का मानना है कि उत्तराखण्ड में कई ऐसी योजनाएं हैं, जैसे सड़कों का चौड़ीकरण, पुल, भवन, जलाशय, सुरंग, रोपवे आदि का निर्माण होने से धरातल में दरारों का आना, भूस्खलन होना आदि की घटनाओं से बाढ़ आती रहती है।विकास के नाम पर हम जिस प्रकार बहुउद्देश्यीय योजनाएं उन क्षेत्रों में बना रहे हैं। जो अत्यंत कमजोर है इसका अभिप्राय यह भी कतई नहीं है कि क्षेत्र में सड़कें पुल, भवन, जल विद्युत योजनाऐं नहीं बननी चाहिए।अतः विकास की किसी भी योजना का कार्यान्वय करने पहले ही स्थानीय आवश्यकताओं के साथ स्थानीय भूगर्भ/भूगोल का खयाल अवश्य रखना चाहिए। यह क्षेत्र चीन/तिब्बत से लगा है सामाजिक दृष्टि से भी संवेदनशील है। औपचारिकताएं पूरी करने के लिये सरकारों द्वारा मानकों को पूरा किया जाता होगा, क्योंकि चतुर वैज्ञानिकों एवं अवसर वादी स्थानीय नेतृत्व को इस प्रकार की बड़ी योजनाओं के ठेकेदार हमेशा से अपने पक्ष में करते रहे हैं, आर्थिक लाभ एवं पर्यावरणीय नुकसान का आंकलन तटस्थ रूप से होना आवश्यक है। उत्तराखण्ड हिमालय बचेगा, तभी देश के उपजाऊ मैदान बचेंगे, तभी उर्वर मिट्टी बनेगी, जलवायु पर नियंत्रण होगा, शुद्ध जल की आपूर्ति होगी, कार्बन सोखने के जंगल सुरक्षित रहेंगे, तीर्थाटन, साहसिक, पर्यटन हो पायेगा सामाजिक दृष्टि से भी सुरक्षित रहेंगे, यहाँ की संस्कृति एवं परम्परा बच पायेंगी, प्रकृति के सहवासी जीव, जन्तु, औषधीय एवं सुगंध फूल पत्तियां, जड़ी-बूटियां, बुग्याल सुरक्षित रह पायेंगे। अल्प लाभ के कारण स्थानीय पलायन कर संसाधनों की लूट के लिये प्लेटफार्म तैयार कर रहा है। वन्य जीव जंतुओं को जंगलों में भोजन नहीं मिल रहा है तो गॉव/शहरों/वसासतों की ओर आ रहे हैं। पलायन के कारणों को स्थानीय स्तर पर समझना होगा। उनको समाधान के लिए स्थानीय स्तर पर योजनायें भी बनानी होंगी। स्थानीय लोगों को निर्णय में भागीदार बनाना होगा। स्थानीय लोगों को शामिल न करने के कारण उनका उस योजना के रख रखाव में अपनत्व का लगाव ही नहीं होता है।

स्थानीय लोगों के साथ बैठकर उन्हीं के लिये योजनाएं बनाई जायेंगी तो शायद हिमालय के जल, जंगल, जमीन के साथ संस्कृति, परम्पराएं, रीति, रिवाज एवं उनको संरक्षित करने वाला हिमालयवावासी सुरक्षित होगा, ऐसे स्वस्थ एवं खुशहाल उत्तराखण्ड के लिये जमीनी स्तर पर कार्य करने की जरूरत है। भूकंप से लेकर भूस्खलन तक एवं अचानक बाढ़ तक के व्यापक प्रभाव को समझने की जरूरत है और बार-बार भूस्खलन/व्‍यापक परिवर्तन गतिविधियों, टेक्टोनिक रूप से सक्रिय और भूकंप-प्रवण एमसीटी जोन से निकटता आदि के कारण भागीरथी बेसिन इस तरह की घटना के लिए एक उत्कृष्ट उदाहरण है। विभिन्न प्रकार के खतरों और संबंधित प्रक्रियाओं, जोखिम मूल्यांकन, मलबे के प्रवाह के सिमुलेशन और व्यापक परिवर्तन मॉडलिंग पर अध्ययन को सुदृढ़ किए जाने की आवश्यकता है।लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।