उत्तराखंड की विलुप्त होती सांस्कृतिक धरोहर (cultural heritage) के संरक्षण दायित्व!
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
इसे आधुनिकता का असर कहें या अपनों की उपेक्षा, अलग राज्य बनने के बावजूद पारंपरिक लोक कलाएं हाशिये पर हैं। ढोल-दमाऊं जैसे वाद्य यंत्रों को बजाने वाले अब मुट्ठी भर लोग बचे हैं तो तिबारी (पहाड़ी मकानों में लकड़ी पर बनने वाले डिजाइन) जैसी काष्ठ कला पर वक्त की मोटी गर्द जमा हो गई। चूंकि मांग कम हुई तो पीढिय़ों से काम कर रहे लोगों ने भी इससे मुंह मोड़ कर रोजगार के नए साधन तलाश करने शुरू कर दिए। उत्तराखंड गठन के बाद 23 साल में कई बार सरकारों ने जनभावनाओं से जुडऩे के लिए इन कलाओं को संरक्षित करने के कागजी मंसूबे तो बांधे, लेकिन गंभीरता का आलम यह रहा कि न तो इसके लिए पैसा दिया और न ही पलट कर यह देखा कि प्रगति कहां तक पहुंची।
पिछली सरकार के कार्यकाल में भी पुरोहितों को पेंशन देने से लेकर मांगल गायन करने वालों को लेकर समय-समय पर घोषणाएं की गईं, लेकिन लाभ कितनों को मिला, शायद ही कोई बता पाए। यह अलग बात है कि सात समंदर पार अमेरिका जैसे देश से लोग ढोल- दमाऊं को सीखने उत्तराखंड पहुंच रहे हैं। अमेरिका की सिनसिनाटी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर स्टीफन बीते दस साल से उत्तराखंड आकर पहाड़ी ढोल कला का अध्ययन कर रहे हैं। पहाड़ी की संस्कृति से प्रभावित स्टीफन फ्लेमिंग ने खुद का नाम बदलकर फ्योंली दास रख लिया है। वे पहाड़ में आयोजित होने वाले पारंपरिक मेलों के दौरान होने वाले लोक कलाओं के प्रदर्शन को देखने अवश्य जाते हैं। यह अकेला उदाहरण नहीं, मुंबई जैसे महानगर से आए युवाओं का एक समूह तिबारी के संरक्षण में जुटा है। ये चंद उदाहरण इतनी उम्मीद तो जगा रहे हैं कि पहाड़ की लोक कलाओं का आकर्षण बेशक अपनों के बीच धूमिल पड़ गया हो, लेकिन उत्तराखंड से बाहर इसकी चमक बरकरार है।लेकिन सवाल यह हैकि अपनों की उपेक्षा के बाद क्या कोई कला लंबे समय पर जीवित रह पाएगी। यकीनन नहीं, जाहिर है इन कलाओं को पुनर्जीवन तभी मिल सकता है, जब संरक्षण के लिए सरकार के साथ ही लोक भी आगे आए। इन दिनों हरिद्वार में पर्यटन विभाग द्वाराआयोजित नाद कार्यक्रम को इसी दृष्टि से देखना चाहिए। प्रयास सराहनीय है, लेकिन जरूरी यह है कि इसे आगे भी जारी रखा जाए।
कला जब तक रोजगार से नहीं जुड़ेगी, तब तक उसके संरक्षण की उम्मीद करना बेमानी ही है। जाहिर है भले ही यह दायित्व अकेले सरकार का नहीं, लेकिन उसकी भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता। 4 दिसंबर 2021 का दिन तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने18 हजार करोड़ रुपये की योजनाओं का शिलान्यास व लोकार्पण किया था। लोकार्पित योजनाओं में देहरादून के नींबूवाला (गढ़ीकैंट) में 67.3 करोड़ रुपये की लागत से बना हिमालयन कल्चरल सेंटर भी शामिल।उत्तराखंड की समृद्ध लोक विरासत को सहेजने के उद्देश्य से बने इस सेंटर का अब सरकार संचालन शुरू करने जा रही है। इसमें राज्य की संस्कृति से जुड़े सभी आयाम तो परिलक्षित होंगे ही, भावी पीढ़ी को जड़ों से जोडऩे की दिशा में भी यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
मध्य हिमालयी राज्य उत्तराखंड की लोक कलाओं के संरक्षण, लोक संवाहकों को उचित मंच और भावी पीढ़ी को सांस्कृतिक विरासत से परिचित कराने के उद्देश्य से हिमालयन कल्चरल सेंटर की स्थापना का सरकार नेनिर्णय लिया। इसका जिम्मा सौंपा गया नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कारपोरेशन (एनबीसीसी) को।वर्ष 2021 में इसका भव्य भवन बनकर तैयारहुआ। इसमें अत्याधुनिक आडिटोरियम, संग्रहालय, ओपन थिएटर, आर्ट गैलरी जैसी तमाम सुविधाएं एक छत के नीचे हैं। संस्कृति विभाग की निदेशक के अनुसार इस सेंटर में उत्तराखंड की संस्कृति के सभी आयाम परिलक्षित होंगे। संग्रहालय में खान-पान, रीति-रिवाज, वास्तुकला, आभूषण, स्मारकों की शैली, पांडुलिपियां, लोक वाद्य समेत सभ्यता व संस्कृति से संबंधित मूर्त-अमूर्त वस्तुएं प्रदर्शित होंगी। लोक कला की सभी विधाओं के रंग यहां बिखरेंगे। लोककलाओं के संरक्षण में भी सेंटर की अहम भूमिका रहेगी। उत्तराखंड की लोक विरासत के संरक्षण में हिमालयन कल्चरल सेंटर मील का पत्थर साबित होगा। अगले माह के दूसरे सप्ताह में भव्य कार्यक्रम के आयोजन के साथ इसका संचालन शुरू करने की तैयारी है। इसकी शुरुआत के लिए मुख्यमंत्री से समय मांगा गया है। पहाड़ की लुप्त होती लोक कलाओं को बचाने की जिम्मेदारी अकेले सरकार की ही नहीं है, इसके लिए लोगों को भी आगे आना होगा।, लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।