गंगा दशहरा गंगा के लिए दुखों से लड़ने की हिम्मत बनें भगीरथ
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
हिमालय के गोमुख से चलकर बंगाल में गंगा-सागर तक की विशद यात्रा करने वाली गंगा भारत की वस्तुत: जीवन-धारा है। विराट भू-भाग को सिंचित कर अन्न का विशाल भंडार संभव-साकार करने वाली यह नदी इस तरह करोड़ों लोगों की क्षुधा-तृप्ति का आधार तो गढ़ती ही है, धर्म-प्राण भारतीय मानस की अपराजेय श्रद्धा-भावनाओं को भिगोती हुई लगातार असंख्य लोगों की आत्मा और आस्था को भी संतृप्त करती चल रही है। इसके तटवर्ती नगरों-महानगरों की समृद्धि भी सबके सामने है। इस तरह सभी रूपों में यह हमारे देश-समाज की प्राण-धारा है। इतना कुछ होने के बावजूद यह महान नदी यदि आज अपने अस्तित्व-संकट से जूझने को विवश है, तो यह हमारे समय की एक बड़ी विडंबना है। इससे बड़ा दुर्भाग्य भला दूसरा क्या हो सकता है कि गंगा की महत्ता को जानते-समझते हुए भी हम इसे प्रदूषण की मार से मिटते देखने को बाध्य हैं!अवतरण से लेकर अब तक का गंगा का वृत्तांत संघर्ष से भरा हुआ है।
पौराणिक कथा के अनुसार, भगीरथ ने कपिल मुनि की कोप-दृष्टि से भस्म हुए अपने साठ हजार पूर्वजों की मुक्ति के लिए कठोर तप से इस देव-नदी को पृथ्वी पर उतारने का वरदान अर्जित किया था। एक तो यह वरदान प्राप्त करने में वषरें की कठिन तपस्या और उसके बाद गंगा का अवतरण संभव बनाने के लिए परिस्थिति के निर्माण हेतु अतिरिक्त तप-उद्यम। भगीरथ ने फिर शिव की आराधना शुरू की। प्रसन्न होकर शिव ने गंगा को जटाओं से मुक्त किया। गंगा जटाओं से उस ‘बिंदुसर सरोवर’ में उतरीं, जो ब्रह्मा द्वारा निर्मित था। यहां गंगा सात धाराओं में विभक्त हुईं। आगे-आगे दिव्य रथ पर सवार भगीरथ चले और उनके पीछे गंगा की सातवीं धारा। पृथ्वी पर गंगा के उतरते ही हाहाकार मच गया। जिस रास्ते गंगा चलीं, उसी पर महर्षि जुहु का आश्रम था। उनकी तपस्या में खलल हुआ तो उन्होंने गंगा को निगल लिया।
भगीरथ के लिए नई मुसीबत। उनकी पीड़ा को समझते हुए देवताओं ने महर्षि से प्रार्थना की। महर्षि ने गंगा को मुक्त किया और अपनी जंघा से बाहर निकाला। यहीं गंगा जहान्वी कहलाईं। भगीरथ आगे बढ़ते हुए कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे, जहां उनके साठ हजार पूर्वज अर्थात महाराज सगर के पुत्रों के भस्मावशेष पड़े थे। गंगा ने इन भस्मों को तारा। भगीरथ के कठोर तप-प्रयास से धरती पर उतरीं गंगा भागीरथी कहलाईं। इसे विचित्र व विडंबनापूर्ण संयोग ही कहा जाएगा कि गंगा पौराणिक कथाओं के अर्वाचीन प्रसंग-काल से लेकर अब तक संघर्ष ही करने को विवश हैं। बेशक आज भी यह नदी करोड़ों धर्म-प्राण लोगों की आस्था से जुड़ी हुई हैं, जिनकी पूजा की जाती है, लेकिन वस्तुतथ्य यह भी है कि यह नदी आज अपने अस्तित्व-संकट तक से जूझ रही है। हिमालय के गोमुख से चलते ही और गंगा-सागर तक पहुंचते-पहुंचते इस नदी का क्या हाल हो जाता है, यह सर्वज्ञात है। इसके तट के तमाम नगर-महानगर और औद्योगिक इलाके इसे किस कदर लगातार प्रदूषित कर रहे हैं, यह एक दुखमय संदर्भ है।
ऐसे में कई बार तो यहां तक महसूस होने लगता है कि हम गंगा के साथ सचमुच आस्था का निर्वाह भी कर पा रहे हैं या नहीं! आरती का भव्य आयोजन करने या धूप-बत्ती से पूजन भर कर देना ही क्या पर्याप्त है? सवाल यह भी है कि क्यों गंगा में आस्था रखने वाले लोग भी इस देवनदी के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए अपने गुरुतर दायित्वों का निर्वहन नहीं करना चाहते! इसमें दो राय नहीं कि गंगा में स्नान का जैसा महात्म्य स्थापित है, उसके मद्देनजर श्रद्धालु विभिन्न विशिष्ट धार्मिक तिथियों-अवसरों से लेकर सामान्य दैनंदिनी तक में उसमें स्नान-लाभ लेंगे ही। बेशक स्नानादि से नदी के अस्तित्व को वैसा खतरा कदापि नहीं है, जैसा औद्योगिक कचरे के प्रहार से। ऐसे में अनिवार्यता तो यह भी है कि गंगा में औद्योगिक कचरे के निस्तारण पर पूरी तरह रोक लगाने की कवायद शुरू हो। बड़े स्तरों पर कचरा उगलने वाली अधिकांश औद्योगिक इकाइयां तटवर्ती नगरों-महानगरों में ही स्थित हैं।
सुखद यह है कि सरकार ने गंगा की स्वच्छता के लिए प्रयास आरंभ कर दिए हैं। अब आवश्यकता है कि नागरिक चेतना नया आकार ग्रहण करे। हम इस बात को समझें कि इस नदी को बचाने के लिए हमें लगातार प्रयास करना है। इसके तहत तटवर्ती इलाकों के लोग लगातार मुस्तैद रहें कि कैसे गंगा को प्रदूषण से मुक्त रखा जाए! इसे बचाने और बनाए रखने के ठोस प्रयासों को ही गंगा के प्रति सच्ची आस्था-श्रद्धा की संज्ञा दी जा सकती है। गंगा किनारे बसे औघोगिक अपशिष्ट, कूड़े कचरे- बिना शोधित जल-मल का गंगा में बहाव से गंगा की सेहत आज बेहद प्रदूषित हो चुका है।सवाल है कि जिन पौराणिक मान्यताओं में यह बताया जाता है कि-राजा भगीरथ ने घोर तपस्या कर अपने पुरखों को तारने और पुण्य कमाने के लिए गंगा नदी को स्वर्गलोक से पृथ्वी लोक पर अवतरण कराया,वही गंगा आज हमारे जनों को उबारने में सक्षम क्यों नहीं है?
जो अंग्रेज गंगा के शरीर को बांधों की बेड़ियों जकड़ने की तरकीब सीखा गये, वे अपनी टेम्स नदी की साफ-सफाई का पूरा इंतजाम करने में सफल रहे। और हम आजादी के पचहत्तर साल बाद भी पवित्र गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने की जदोजहद में लगे हैं ये वही अंग्रेज हैं-जो एक जमाने में गंगा के मुहाने से हमारी बहुमूल्य थाती खींचते थे और टेम्स नदी के मुहाने पर निचोड़ लेते थे। क्या हम इतिहास की इस भूल से कोई सबक सीख पाये हैं? अपनी सभ्यता- संस्कृति की रक्षा और सनातन धर्म के निरंतर प्रवाह को बनाये रखने के लिए भी आज गंगा का अविरल प्रवाह सुनिश्चित करना समय की मांग है। इस काम को सामुदायिक व्यवहार से हम जितना जल्दी करें, उतना ही बेहतर। लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )