च्यूरा वृक्ष में है पहाड़ की बेरोजगारी को दूर करने की क्षमता
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
हमारें देश में प्रकृति को प्राचीन काल से ही अत्यधिक महत्व दिया गया है। प्राचीन काल से मनुष्य अपनी मुलभूत आवश्यकताओं के लिए प्रकृति पर ही निर्भर रहा है। प्राचीन काल से ही प्रकृति से हमें खाद्यान, दुर्लभ औषधीयां और भी कई जरूरी चीजें प्राप्त हो रही है। सही मायने में कहा जाए, तो बिनाह प्रकृति के मनुष्य जीवन संभव नहीं है। इन्हीं को ध्यान में रखते हुए हमारें पूर्वजों ने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण हेतु कई तत्वों को देवता स्वरूप तथा पूजनीय बताया गया है। प्रकृति में कई ऐसे वृक्ष पाए जाते है जिनका सभी भाग मानव के लिए उपयोगी होते है। इसमें कल्पवृक्ष (च्यूरा) भी शामिल है। इस वृक्ष का जिक्र हमारे पुराणों में भी है।
च्युर या च्यूरा एक ऐसा वृक्ष है जिसके उपयोगों का कोई अन्त नही है।च्यूरा के वृक्ष का हर भाग बहुपयोगी है। इसके बहुपयोगी महत्व के कारण इसे हम पहाड़ का कल्पवृक्ष भी कहें तो कोई आश्चर्य नही होगा। कल्पवृक्ष जिसे स्थानिय भाषा में च्यूरा वृक्ष के नाम से भी जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम (डिप्लोक्नेमा बूटीरेशिया) है। इसका ताल्लुक सपाटेसी प्रजाति के पेड़ों से है, जो की भारतीय मक्खन वृक्ष के रूप में लोकप्रिय है। भारत में इसे कई लोग इसे बटर ट्री भी कहते हैं। यह मुख्यतरू उत्तराखंड राज्य में पाया जाता है। यह अपार संभावनाओं वाला एक बहूउद्देशीय पेड़ है जिसकी उपयोगिताओं के समुचित दोहन किए जाने की आवश्यकता है। कल्पवृक्ष या च्यूरा वृक्ष उत्तराखंड राज्य के कुमाऊँ के पहाडी क्षेत्रों में समुद्र कि सतह से 300 से 1500 मीटर की ऊंचाई वाले विभिन्न हिस्सों में पर पाये जाते है।
सामान्यतः इन क्षेत्र में इसे फूल्वारे, फुलवा, पहाड़ी महुआ, गोफट अथवा भारतीय मक्खन वृक्ष का नामों से भी जाना जाता है। इसके पेड 10 से 20 मीटर तक ऊंचे पाये जाते है। च्यूरा मैदानी क्षेत्रों में पाये जाने वाले बहुपयोगी वृक्ष महुआ की पहाड़ी प्रजाति भी माना जा सकता है, लेकिन पहाड़ो पर पाये जाने वाले च्यूरा के वृक्ष का अत्यधिक महत्व माना जाता है। व्यवसायिक तौर पर बीजों से निकाले गए च्यूरा तेल का विपणन फुलवारा घी के रूप में होता है। च्यूरा के वृक्ष भारम में हिमालय क्षेत्र के पहाड़ी राज्यों कश्मीर से सिक्किम तथा भूटान व नेपाल में पाये जाते हैं। उत्तराखंड के कुमाऊँ मंड्ल में च्यूरा के वृक्ष सभी पहाड़ी जिलों अर्थात अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ और चम्पावत जिले में काली, पनार, रामगंगा और सरयू नदी घाटी में काफी ज्यादा पाए जाते हैं। वहीं, नैनीताल जिले में भीमताल के आस-पास के स्थानों पर इसके वृक्ष बहुतायत में हैं।
मीडिया रिपोर्टस की मानें तो कुमाऊं मंडल में च्यूरा के करीब 60 हजार पेड़ होने की जानकारी प्राप्त है। जिनमें से मोटे अनुमान के अनुसार माना जाता है कि करीब 40 हजार वृक्ष ऐसे हैं जिनमें से फल और बीज प्राप्त किए जाते है। च्यूरा वृक्ष के खिलने का समय जनवरी से शुरु होकर अक्टूबर तक होता है। इसके फल खाने में बेहद स्वादिष्ट- मीठे, सुगंधित और रसीले होते हैं, जिसे बच्चें समेत जानवर बड़े चाव के साथ खाते हैं। च्यूरा अपार संभावानाओं वाला एक बहुउद्देशीय वृ़क्ष है, जिसका समुचित भाग बहुउपयोगी माना जाता हैं। च्यूरा का वृक्ष ऊँचा तथा तना मजबूत होता है। इसकी ऊँचाई 15-22 मीटर तक तथा तने की गोलाई 1.5-1.8 मीटर तक होती है। परंतु कुमाऊँ क्षेत्र में इसका वृक्ष मंझोले आकार से लेकर कुछ अधिक ऊँचाई वाला भी होता है तथा पहाडि़यों पर इसका तने की गोलाई ३ मीटर तक होती है। और इस वृक्ष की जड़ों की भूमि पर मजबूत पकड़ होती है। जिस कारण यह वृक्ष पहाड़ी ढलानों पर भू-कटाव को रोकने के लिए अत्यधिक उपयोगी माना जाता है। जिन क्षेत्रों में च्यूरा के वृक्ष अधिक संख्या में हैं, उन नदी घाटियों में भूस्खलन अन्य स्थानों की अपेक्षा काफी कम पाया गया है च्यूरा एक सदाबाहर वृक्ष है। इसे एक तेजी से बढ़ने वाला तिलहन मूल का वृक्ष भी कहते है।
इसकी पत्तियाँ 20-25 सें. मी. लम्बी एवं 9-18 सें. मी. चौड़ी होती है जो शाखाओं के छोर पर गुच्छे के रूप में लगी होती हैं। इसकी पत्तियों को पशुओं के लिए उपयोगी चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है। घरेलू दूधारू पशुओं के लिए इसकी पत्तियां पौष्टिक आहार और दूध को बढ़ाने वाली मानी जाती हैं। वहीं, इसकी पत्तियों की माला शुभ कार्यों में मकानों के बाहर शुभ प्रतीक के रूप में लगाई जाती हैं। ऐसी मान्यता है कि इन पत्तियों को लगाने से परिवार पर अशुभ की छाया नहीं पड़ती है। इसकी के कारण इसकी पत्तियों का इस्तेमाज शुभ कार्यों में किया जाता है। च्यूरा का फल का गूदा स्वादिष्ट-मीठा, सुगंधित और रसीला होता है। इसके फल के गूदे में शर्करा की प्रचुर मात्रा पाई जाती है। जिस परिणाम स्वरूप पहाड़ों में पारम्परिक रूप से इसके गूदे का उपयोग गुड़ बनाने के लिए भी किया जाता रहा है।
इसके गूदें को कुचल और कूट कर कर गर्म पानी में पारंपरिक विधि में उबालकर गूदे के रेशों को छानकर और निचोड़कर अलग कर लिया जाता है। घोल को लगातार उबालकर रख को गाढ़ा किया जाता हैं। इस सूखे और गाढ़े रस से गुड़ ठोस के रूप प्राप्त होता है, जिसे गन्ने के रस से बने गुड़ की तरह ही इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलग किये गए गूदे के रेशों के अवशेषों को पशुओं के चारे के साथ मिलाकर पशुओं को चारे के रूप में खिलाते हैं च्यूरा के फलों के अंदर 1.5 से 2.0 सें. मी. लम्बाई वाले काले चमकदार लगभग बादाम के आकार वाले बीज होते हैं जिनके अंदर की गिरी सफेद होती हैं। बीज का आवरण पतला से मोटा तथा काष्ठीय व पपड़ीदार होता है। इसके बीजों का उपयोग वनस्पति घी बनाने में किया जाता है। वनस्पति घी बनाने के लिए पहले इसके पके फलों के गूदे से इसके बीजों को अलग करके बीजों साफ किया जाता है।
इसके बाद इन बीजों को गर्म पानी में उबाला जाता है, फिर बीजों में से छिलके को निकालकर गिरी को लगा कर लिया जाता है। इसके बाद इन बीजों को कुछ समय के लिए धूप में सुखाया जाता है। इन सूखी गिरी को भूना जाता है, जब उसमें से भुनने वाली खुशबू (भूटैन) आने लगती है तो गर्म गिरी को तुरंत ओखल में तब तक कूटा जाता है जब तक बारीक लुग्दी तैयार न हो जाए। तैयार लुग्दी को भारी बारीक कपड़े से निचोड़ कर तेल को छानकर अलग कर लिया जाता है। छाना हुआ तेल ठंडा होने के पश्चात घी के रूप दिखाई देता है। इसे घी की तरह ही खाद्य के रूप में प्रयोग किया जा सकता है जो गुणवत्ता में शुद्ध तथा दूध के मक्खन से प्राप्त घी के समान ही होता है। इस प्रकार हम देखते है की च्यूर नाम का यह पेड़ पहाड़ वासियों को वर्षों से घी उपलब्ध करा रहा है जिस कारण इसे इंडियन बटर ट्री कहा जाता है।लेकिन वर्तमान में लोगों को इसके महत्व का पता नहीं है तथा लोग धीरे धीरे इसे भुलाते जा रहे हैं। अगर इसका संरक्षण कर समुचित रूप से व्यावसायिक इस्तेमाल किया जाए तो जिन क्षेत्रों में यह पाया जाता है वहां की आर्थिकी में इसका योगदान हो सकता है।
वर्तमान में इसके संरक्षण हेतु राज्य के वन विभाग की कुछ नर्सरियों में भी इस वृक्ष के रोपण हेतु पौध तैयार की जा रही हैं। च्यूरा ऑयल से ज्यादा अपेक्षा च्यूरा वृक्ष को जी.आई टैग प्राप्त हो पहाड़ का कल्प वृक्ष है यहां बहुतायत में होने वाला च्यूरा वृक्ष जिसे कल्पतरू के नाम से जाना जाता है का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। चम्पावत, पिथौरागढ़ व अल्मोड़ा का 76 वर्ग मीटर व नेपाल का 40 वर्ग किमी भूभाग प्रभावित होगा। अकेले चंपावत जिले के डूब क्षेत्र में 19 विभागों की करीब 1.60 अरब रुपए की परिसंपत्तियां प्रभावित होंगी। तीनों जिलों के 134 गांव डूब क्षेत्र में आएंगे। इसमें 31 हजार से अधिक लोग विस्थापित होंगे। चंपावत के 26, पिथौरागढ़ के 87 व अल्मोड़ा जिले के 21 गांव शामिल हैं। पंचेश्वर क्षेत्र में पेड़-पौधों की 193 प्रजातियां जिसमें 46 वृक्ष, 33 झाड़ियां, 53 जड़ी-बूटियां एवं 29 प्रकार की घास शामिल है। 43 स्तनधारी, 70 चिड़ियां, 47 तितलियां, 30 मछलियों की प्रजातियां बांध में विलुप्त हो जाएंगें। 9100 हेक्टेयर जमीन प्रभावित होगी।
हालांकि वर्ष 1996 से शुरू हुई इस परियोजना को कभी गति नहीं मिली। दोनों देशों के बीच बिजली व सिंचाई को लेकर सहमति नहीं बन पाई। पंचेश्वर यानी सरयू, पनार, रामगंगा व काली नदी का संगम है। नदियों के हिसाब से देखें तो काली नदी में धारचूला, सरयू में सेराघाट,पनार में सिमखेत व रामगंगा में थल तक के क्षेत्र पर इसका प्रभाव पड़ना है। क्योंकि बांध बनने से 11,600 हेक्टेयर की कृतिम झील बनेगी जो क्षेत्रीय इलाकों के पर्यावरण पर गहरा प्रभाव डालेगी।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)