उत्तराखंड चुनाव में कहां हैं पहाड़ के मुद्दे?
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के पहाड़ों में भी लोकसभा चुनाव की बयार बह रही है। गांव से शहर तक चुनाव पर चर्चा चल रही है। मुद्दों की कसौटी पर दलों को कसा जा रहा है। हर चुनाव की तरह इस चुनाव में भी राष्ट्रीय मुद्दों की धमक है। जनता इन मुद्दों पर बात कर रही है। वहीं राजनीतिक दलों ने भी राष्ट्रीय मुद्दों को केंद्र पर रखना शुरू कर दिया है। उत्तराखंड राज्य प्राप्ति के पीछे लोगों की प्रबल इच्छा थी कि राज्य के लोगों का पलायन जल, रुकेगा, जंगल, जमीन पर उन्हें अधिकार मिलेगा और आम आदमी को रोजगार मिलेगा। लेकिन ये सब बातें अब तक राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों के मजबूत हिस्से नहीं बन पाए हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में आपदा में जिस तरह से छोटे किसानों की जमीन,घर, जंगल, रास्ते, नदियां, पहाड़ बर्बाद हो रहे हैं, उनको बचाने के प्रयास भी कंपनियों के माध्यम से हो रहे हैं। उत्तराखंड में पिछले कुछ वर्षों में आई आपदा से कोई भी सबक नहीं लिया जा रहा है। दलित, अल्पसंख्यक, विधवा, परिवारों को आपदा से उबरने के लिए पर्याप्त राशि नहीं मिल पाती है।
उत्तराखंड में बाढ़, भूकंप, भूस्खलन की बार-बार होने वाली घटनाओं के बाद भी बड़े निर्माण, वनों का विनाश, बांधों का निर्माण, मलबों के ढेरों का निस्तारण जान-बूझकर ऐसे स्थानों पर हो रहा है,जो भू-गर्भशास्त्रियों के अनुसार संवेदनशील क्षेत्र हैं। ग्रामीण विकास और पर्यावरण संरक्षण के बारे में राजनीतिक दलों के घोषणापत्र एक जैसे हैं। उन्होंने कभी भी पर्यावरण और विकास के बीच सृजनात्मक संबंध बनाने की बात नहीं कही है और न ही पर्यावरण को न्याय मिल पा रहा है। जल, जमीन, जंगल पर लोगों को अधिकार मिले, इस पर कुछ नहीं कहा जा रहा है। कमरतोड़ महंगाई को घटाने और पर्वतीय क्षेत्रों की महिलाओं को रोजमर्रा के काम के बोझ से कैसे मुक्ति मिलेगी-इस पर घोषणापत्रों में स्पष्ट सोच का अभाव है।हिमालयी राज्यों से अलग हिमालय नीति की मांग की जा रही है, इस बारे में राष्ट्रीय दलों को अवश्य कुछ कहना चाहिए था।
उत्तराखंड में हर वर्ष नौ सितंबर को हिमालय दिवस मनाया जा रहा है, जिसका प्रभाव गैर सरकारी/सरकारी बैठकों से आगे नहीं पहुंच सका है। हिमालयी राज्यों में चुनाव जलवायु को ध्यान में रखकर किया जाए, तो जनवरी-फरवरी की कंपकंपाती सर्दी और बर्फ के बीच चुनाव प्रचार के अलावा मतदान केंद्रों पर जाने वाली पोलिंग टीमों को परेशानी नहीं उठानी पड़ेगी और अधिक से अधिक मतदाता मतदान भी कर सकते हैं। उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद किसी भी राजनीतिक दल ने आम जन से मिलकर यह जानने की कोशिश नहीं की है कि वे कैसा उत्तराखंड चाहते हैं? किस तरह से लोगों का जीवन एवं जीविका सुरक्षित रह सकती है? कैसे राज्य के नौकरशाह, नेता मिलकर आम आदमी के द्वार पर जाकर उनकी समस्याओं को सुनें और समाधान करें? इस पर कोई राजनीतिक संस्कृति नहीं बनाई गई है।
कई जनप्रतिनिधि अपनी विधायक निधि तक इस्तेमाल और सरकार की सभी योजनाओं की मॉनिटरिंग नहीं कर पाते हैं, जिसके कारण भ्रष्टाचार की असीमित गुंजाइशें बढ़ जाती हैं। भ्रष्टाचार के चलते गुणवत्ता विहीन निर्माण के कारण देश की संपत्ति बर्बाद हो रही है। इसी तरह एपीएल और बीपीएल परिवारों का पुनर्सर्वेक्षण कराने की आवश्यकता है, जिस पर चुनाव के समय उम्मीदवारों को जनता के सामने अपनी बात रखनी चाहिए। मध्य हिमालयी राज्य उत्तराखंड भौगोलिक दृष्टि से भले ही छोटा हो और लोकसभा की कुल जमा पांच सीटें हों लेकिन यहां के मतदाता का सोच राष्ट्रीय और परिपक्व है। चुनावों में यह परिलक्षित भी होता आया है। बुनियादी मुद्दे बहुत असरकारी नहीं हैं, बल्कि राज्य का मतदाता राष्ट्रीय मुद्दों पर पार्टी और प्रत्याशियों को कसौटी पर परखता आया है। विषय चाहे आंतरिक सुरक्षा का हो या सीमाओं की सुरक्षा अथवा घुसपैठ का, उत्तराखंड के नागरिक सजग प्रहरी की भूमिका निभाते हैं। वे सभी को तौलते हैं।
इसी परंपरा को यहां का मतदाता लोकतंत्र के इस महोत्सव में भी आगे बढ़ाता दिख रहा है। यद्यपि, राजनीतिक दल और प्रत्याशी स्थानीय व क्षेत्रीय मुद्दों को भी आगे बढ़ाते हैं, लेकिन कम ही लोग इससे प्रभावित होते हैं। इस लोकसभा चुनाव में भी राज्यवासी इस परंपरा को आगे बढ़ाते दिख रहे हैं। यही कारण है कि राजनीतिक दलों ने अपने चुनाव प्रचार के केंद्र में राष्ट्रीय मुद्दों को प्रमुखता दी है। भाजपा ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, नागरिकता संशोधन अधिनियम, सैनिकों के लिए वन रैंक-वन पेंशन, तमाम केंद्रीय योजनाएं, समान नागरिक संहिता की उत्तराखंड की पहल जैसे राष्ट्रीय विषयों को केंद्र में रखा है। दूसरी तरफ,कांग्रेस अग्निपथ योजना में खामियां जैसे विषयों को जनता के बीच रख रही है। इनकी राष्ट्रीय स्तर पर भी खूब चर्चा हो रही है। अब पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी यहीं के काम आएगी। यह वादा उत्तराखंड के लोग राज्य बनने से पहले से ही सुनते आ रहे हैं।
हर चुनाव में यह रिपीट होता है, पर आजतक हालात में कोई बदलाव नहीं आया। अलग राज्य की मांग ही इसलिए की गई थी कि पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ों में ही रहे। लेकिन राज्य बने 23 साल हो गए पर उत्तराखंड में जितने लोग रहते हैं उससे ज्यादा उत्तराखंडी दिल्ली, मुंबई और लखनऊ जैसे शहरों में हैं। नई मंजिल पाने और सपने पूरे करने के लिए महानगरों का रुख करना गलत नहीं है, लेकिन उत्तराखंड के जवान यहां से मजबूरी में बाहर जाते हैं। रोजगार के नाम पर यहां बस कुछ सरकारी नौकरियां हैं। न तो इंडस्ट्री इतनी हैं कि रोजगार का बड़ा जरिया बन सकें और न ही यहां की प्राकृतिक सुंदरता को रोजगार से जोड़ने की कोशिश की गई।
उत्तराखंड के लिए एक बार फिर से साफ-साफ संदेश दे गया है कि यदि राज्य में लगातार बढ़ते पलायन को रोका नहीं गया तो राज्य के राजनीतिक मानचित्र में आने वाले समय में एक बड़ा बदलाव आ सकता है। यह बदलाव मैदानी और पर्वतीय क्षेत्रों में सीटों के बंटवारे के रूप में होगा। यह आशंका हकीकत में बदली तो उत्तराखंड सिर्फ नाममात्र का पर्वतीय राज्य ही रह जाएगा। हाल के वर्षों में एक खास बात यह भी नजर आई है कि राज्य के आम लोग ही नहीं, बल्कि तमाम बड़े नेता भी पहाड़ से मैदान की ओर पलायन कर गये हैं, यहां तक कि वे अब चुनाव भी मैदानी सीटों से ही लड़ रहे हैं। मैदानी जिलों की तुलना में पर्वतीय जिलों में कम वोटिंग प्रतिशत भी इस तरफ इशारा करता है।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )