अनियोजित विकास से बढ़ा जलभराव
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
वर्ष 2000 में अस्थायी राजधानी बनने से लेकर अब तक के करीब 23 साल के सफर में दून की गाड़ी अनियोजित विकास की तरफ ही बढ़ी है। आंकड़े गवाह हैं कि इस अंतराल में करीब 1000 नई कॉलोनियां अस्तित्व में आ गई, मगर लेआउट महज 82 का ही पास है। यानी कि जिस भूखंड पर कॉलोनी बनाने के लिए प्लॉट काटे जाते रहे, उनका ले-आउट पास ही नहीं कराया गया। क्योंकि प्रॉपर्टी डीलर ले-आउट पास कराते तो उन्हें कम से कम साढ़े सात से नौ मीटर की सड़क छोडऩी पड़ती। नाली का निर्माण कराना पड़ता और ग्रीन एरिया के लिए भी जगह रखनी होती। जाहिर है इससे प्रॉपर्टी डीलरों का मुनाफा घट जाता।
शहर में रिस्पना और बिंदाल के दोनों तरफ अवैध बस्तियां बस जाने से ये नदियां संकरी हो गई हैं। शनिवार को रिस्पना नदी का पानी आबादी में घुस गया था और काफी नुकसान हुआ था। जिला प्रशासन के निर्देश पर नगर निगम और सिंचाई विभाग ने नदी किनारे बसी अवैध बस्तियों की स्थिति का जायजा लिया है।यह तो रही प्रॉपर्टी डीलरों के हक की बात। मगर, उस आम आदमी के हक का क्या, जो अपने खून-पसीने की कमाई लगाकर एक छोटा प्लॉट खरीदता है। क्या उसे दून जैसे शहर में इतनी सुविधा नहीं मिलनी चाहिए कि बारिश के शोर के बाद भी वह चैन की नींद सो सके। यह बात वहां के निवासियों लिए बस एक ख्वाब है, जहां हर बरसात में जलभराव होता है और उनकी पूरी रात पानी की निकासी के इंतजाम में बीत जाती है।
दून में 95 फीसद कॉलोनियां पानी की निकासी की अनिवार्य सुविधा से वंचित हैं, क्योंकि जिस मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण (एमडीडीए) को इन सबकी जिम्मेदारी दी गई थी, उसके अधिकारी जनता की जगह प्रॉपर्टी डीलरों के हक में जाकर खड़े हो गए। वर्तमान में भी दून में 500 से अधिक स्थानों पर अवैध प्लॉटिंग का खेल चल रहा है। अपने निगरानी तंत्र को मजबूत कर सभी पर कार्रवाई करना तो दूर शिकायत करने के बाद भी अवैध प्लॉटिंग पर प्रभावी कार्रवाई नहीं की जाती। क्या आपने कभी सोचा है कि जिस शहर को प्रकृति ने अपना ड्रेनेज सिस्टम उपहार में दिया था, वहां की अधिकतर कॉलोनियों में जलभराव क्यों हो जाता है। क्या कभी सोचा है कि कॉलोनियों की सड़कें इतनी संकरी क्यों हैं और इनमें नाली बनाने तक की जगह क्यों नहीं है।
आज यह सवाल इतना बड़ा न लगता, अगर राजधानी बनने के साथ ही यहां ले-आउट पास कराए बिना प्लॉटिंग न करने दी जाती। प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों बजट बाद शहरी योजना, विकास और स्वच्छता विषय पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने देश के शहरों को संवारने पर जोर देते हुए कहा कि आजादी के बाद से शहरों के विकास को प्राथमिकता नहीं दी गई। यह स्पष्ट भी है। एक-दो शहरों को छोड़ दिया जाए तो कोई भी शहर ऐसा नहीं, जिसका नियोजित तरीके से विकास किया गया हो। नतीजा यह है कि लगभग सभी शहर अनियोजित निर्माण और बेतरतीब योजनाओं के कारण आबादी के बोझ तले कराह रहे हैं। इन शहरों में रहने वाले बुनियादी सुविधाओं के अभाव से जूझते रहते हैं।
हमारे शहर गंदगी, प्रदूषण के चलते बीमारियों का गढ़ बन गए हैं। शायद ही कोई शहर हो, जिसमें पेयजल आपूर्ति और सीवर की व्यवस्था सही हो। कितने ही शहर हैं, जहां के एक हिस्से में सीवर लाइनें ही नदारद हैं। अगर सीवर लाइनें हैं भी तो वे उफनती रहती हैं। इसी के साथ नालियां भी बजबजाती रहती हैं। सीवेज संशोधन संयंत्र भी मुश्किल से अपनी पूरी क्षमता से काम करते हैं। इसके चलते शहरों के किनारे की नदियां दूषित होती रहती हैं। वायु और जल प्रदूषण के चलते हमारे शहर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निम्न स्थान पर आते हैं। समस्याओं से जूझते शहर केवल शहरवासियों की जिंदगी ही मुश्किल नहीं बनाते, बल्कि वे पर्यटन पर भी विपरीत प्रभाव डालते हैं।शहरों के पुराने क्षेत्र हों या नए, वहां फुटपाथ या तो होते नहीं या फिर वे अतिक्रमण की भेंट चढ़ गए होते हैं। इस कारण पैदल यात्री सड़कों पर चलने के लिए विवश होते हैं।
हमारे ज्यादातर शहरों में यातायात रेंगता हुआ दिखाई देता है। शहरों की ऐसी दयनीय दशा तब है, जब हमारे नीति नियंता इससे अच्छी तरह परिचित हैं कि देश का आर्थिक विकास शहरों से ही संभव है। आने वाले समय में ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की तरफ पलायन और तेजी से बढ़ेगा। खास तौर पर ऐसे शहरों में जहां रोजगार की संभावनाएं अधिक हैं।प्रधानमंत्री ने शहरी विकास के मानकों के लिए इस साल के बजट में 15,000 करोड़ रुपये की प्रेरक धनराशि के प्रविधान का उल्लेख करते हुए यह सही कहा कि अमृतकाल के लिए जो लक्ष्य रखे गए हैं, वे तभी पूरे होंगे, जब देश के शहर सही तरीके से विकसित और कुशलतापूर्वक प्रबंधित होंगे। कुशल प्रबंधन सिर्फ यातायात, पानीया बिजली की व्यवस्था ठीक करने से ही नहीं होगा, बल्कि रहन-सहन का स्तर सुधारने से भी होगा।
प्रधानमंत्री ने शहरी नीति नियंताओं का आवाहन किया कि वे शहरों के नियोजन में निजी क्षेत्रों के अनुभवी लोगों का भी सहयोग लें। उन्हें ऐसा इसलिए कहना पड़ा, क्योंकि नगर निकायों और और शहरी विकास से जुड़ी अन्य एजेंसियां अभी अपना काम सही तरह नहीं कर पा रही हैं।शहरों का समुचित विकास केंद्र सरकार का दायित्व नहीं है। यह राज्य सरकारों और उनके नगर निकायों की जिम्मेदारी है। राज्य सरकारें शहरों कीअनदेखी इसलिए करती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका वोट बैंक तो गांवों में बसता है। यह सही है कि अपने देश में ग्रामीण आबादी अधिक है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि राज्य सरकारें शहरों की अनदेखी करें। वे ऐसा ही कर रही हैं।
हालांकि पिछले कुछ वर्षों में शहरी क्षेत्र में लोगों और इसी अनुपात मतदाताओं की संख्या बढ़ रही है, लेकिन शहरी वोट बैंक के अदंर वह राजनीतिक शक्ति नहीं कि राज्य सरकारों को शहरों के विकास के लिए सोचने को बाध्य कर सके। निःसंदेह ग्रामीण इलाकों का भी विकास होना चाहिए, लेकिन शहरों की अनदेखी करके नहीं।देश के बड़े शहरों में अनियोजित कालोनियों और अवैध बस्तियों की संख्या बढ़ती चली जा रही है। ये कालोनियां और बस्तियां आम तौर पर सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जा करके बसाई गई हैं। जो नेता इन्हें बसाते हैं, उनका ध्यान केवल वोटों पर रहता है, न कि वोटरों को सुविधाएं उपलब्ध कराने पर। यह किसी से छिपा नहीं कि प्रत्येक शहर में निजी कालोनाइजर पहले शहरों के आसपास की खेतिहार जमीन खरीदते हैं और फिर वहां अनियोजित विकास की नींव रखते हैं। इस अनियोजित विकास को नगर निकायों और राज्य सरकारों का प्रश्रय मिलता है। उनके इसी रवैये के कारण रेलवे, रक्षा, उड्डयन के साथ अन्य सरकारी विभागों की जमीनों पर अवैध कब्जे होते रहते हैं।ये कब्जे किस बड़े पैमाने पर होते हैं।
इसका एक उदाहरण है हल्दवानी में रेलवे की एक बड़ी जमीन पर कब्जा। चूंकि सरकारी जमीनों पर कब्जा कर बसाई गईं कालोनियां 50-60 वर्ष पुरानी हो चुकी हैं, इसलिए उन्हें हटाना असंभव सा है। इन कालोनियों में मानव विकास सूचकांक के हर पैमाने की अवहेलना होती है। भारत उन देशों में है, जहां शहरी आबादी का घनत्व कहीं अधिक है। इसका एक बड़ा कारण अनियोजित कालोनियां ही हैं। इन्हीं कालोनियों के कारण हमारे शहर प्रदूषण, गंदगी, ट्रैफिक जाम, सीवर आदि की समस्या से जूझते रहते हैं।इसका कोई औचित्य नहीं कि समस्याओं से घिरी अनियोजित कालोनियों में वाणिज्यिक गतिविधियां भी जारी रहें। इन कालोनियों का रखरखाव उन्हीं नियम-कानूनों के हिसाब से किया जाना चाहिए, जैसे नियोजित कालोनियों का किया जाता है।
अब समय आ गया है कि शहरी विकास की जरूरत को देखते हुए सरकार अपने विभिन्न विभागों की उन जमीनों को छोड़े, जिनका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। वे चाहे रक्षा विभाग की हों या रेलवे की। इसी के साथ यह भी जरूरी है कि शहर अपने विकास के लिए स्वयं धन अर्जित करने में सक्षम बनें। अभी अधिकांश शहरों में संपत्ति कर का संग्रह सही तरह नहीं होता।राज्य सरकारें शहरों के विकास के लिए पर्याप्त बजट देने में सक्षम नहीं और जब कभी केंद्र से शहरीकरण के लिए धन मिलता है तो उसका एक हिस्सा खराब योजनाओं के कारण या तो बर्बाद हो जाता है या फिर ठेकेदार और इंजीनियरों की मिलीभगत के कारण भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।
यह एक तथ्य है कि केंद्र सरकार की स्मार्ट सिटी योजना के तहत जो धन शहरों को दिया गया, उसका सदुपयोग नहीं हुआ। कम से कम अब तो केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी ओर से दी जाने वाली राशि का सदुपयोग हो। उसे यह भी देखना होगा कि राज्य सरकारें शहरों के समुचित विकास पर गंभीरता से ध्यान दें। खतरे की जद से बचने के लिए अभी से कोई कदम नहीं उठाया गया तो परिणाम बढ़े खतरनाक साबित हो सकते हैं अत: इन सभी बाढ़ संवेदनशील क्षेत्रों में अनियोजित शहरीकरण का भू-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नियोजन
जरूरी है। जिसके चलते शहर को सुरक्षित बनाया जा सकता है। लेखक के अपने विचार हैं।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )