अनदेखी: उत्तराखंडी सेब (apple) उत्पादकों को नहीं मिल रहे उचित दाम
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत में बहुत से फलों की खेती की जाती है। इसमें सेब की खेती किसान को अच्छा मुनाफा देने वाली खेती मानी जाती है। इसकी खेती से किसान को कम लागत में अधिक फायदा होता है। क्योंकि बाजार में सेब के भाव अन्य फलों की अपेक्षा काफी अच्छे मिल जाते हैं नैनीताल जिले में सेब का सबसे ज्यादा उत्पादन रामगढ़ मुक्तेश्वर इलाके में होता है, लेकिन काश्तकारों का कहना है कि पिछले कुछ सालों में सेब की जिन प्रजातियों का बेहतर उत्पादन होता था उसमें अब कमी आने लगी है, लिहाजा यह एक चिंता का विषय बनता जा रहा है, जिसके लिए उन्होंने रामगढ़ में पैदा हो रही सेब की प्रजातियों पर शोध करने की मांग उठाई है।कश्मीर और हिमाचल के बाद सेब उत्पादन में उत्तराखंड का नाम आता है, जहां नैनीताल जिले में रामगढ़ का सेब विश्व प्रसिद्ध है।
मौसम में बदलाव के चलते ओलावृष्टि और बारिश की वजह से सेब की गुणवत्ता पिछले कुछ समय से तो खराब हो ही रही है लेकिन काश्तकारों का कहना है 20 से 25 साल पहले सेब की जिन प्रजातियों का बेहतर उत्पादन रामगढ़ इलाके में होता था उन प्रजातियों में अब सेब की क्वालिटी और उत्पादन दोनों कम होते जा रहे हैं। लिहाजा यह एक सोचनीय विषय है। उत्तराखंड के सेब को मौसम की मार के चलते नुकसान हो रहा है। उत्तराखंड में सेब की बागवानी के लिए किसी नए मॉडल को लागू करने की आवश्यकता महसूस हो रही है। लिहाजा अनुसंधान केंद्रों को रामगढ़ स्थित बागानों की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि सेब के व्यापार से काश्तकार प्रभावित हो रहा है और लगातार घाटा सहने से उत्पादक बागवानी से मुंह मोड़ने लगे हैं।
कृषि अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक के मुताबिक मौसम चक्र में आए बदलाव की वजह से सेब के उत्पादन पर काफी गहरा असर पड़ा है. इसके अलावा पिछले कई सालों से बगीचों का जीर्णोद्धार भी नहीं हो पाया है, जिससे सेब के उत्पादन पर लगातार असर पड़ता चला जाता है क्योंकि पिछले कई सालों में मौसम चक्र में जो बदलाव आया है। उसके अनुसार सेब के लिए जरूरी तापमान में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है, फिलहाल काश्तकारों की परेशानी को देखते हुए सेब की नई वैरायटी को लाने पर विचार किया जा रहा है, वैज्ञानिकों ने सलाह दी है कि काश्तकार अपने पुराने बगीचों का जीर्णोद्धार जरूर करें जिससे सेब के उत्पादन पर दोबारा से फर्क देखने को मिल सकता है।
उत्तराखण्ड प्राकृतिक सम्पदा और भौगोलिक विविधता के लिए जाना जाता है। यहा की जलवायु फल के उत्पादन के लिए काफी उपयुक्त मानी जाती है। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों के अधिकांश भागों में सेब उत्पादन किया जाता है। आज के युग में की बढ़ती मांग को देखते हुए इसके उत्पादन में वृद्धि करना एक बड़ी चुनौती है। ऐसे में पारंपरित तरीकों के साथ-साथ सेब की नवीनतम प्रजातियों की खेती करना बहुत ही आवश्यक होता जा रहा है। नवीनतम तकनीकों के साथ-साथ यह भी बहुत आवश्यक है कि ऐसी प्रजातियों का रोपण किया जाये जो अधिक उपज के साथ-साथ अच्छी गुणवत्ता के फल भी प्रदान करें।
उत्तराखंड के नैनीताल जिले के मुक्तेश्वर, चाफी समेत कई क्षेत्रों में इन दिनों सेब की खेती की जा रही है। इनमें खास बात यह है कि यहां नीदरलैंड के डच प्रजाति के साथ-साथ अन्य विदेशी प्रजाति के सेबों का उत्पादन किया जा रहा है। विदेशी प्रजाति के पेड़ केवल एक साल के अंदर ही फल देने के लिए तैयार हो जाते हैं, जिससे इस बार पहाड़ के किसान अच्छे मुनाफे की उम्मीद कर रहे हैं।रामगढ़, मुक्तेश्वर, चाफी जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में फलों का उत्पादन काफी ज्यादा किया जाता है। यहां पहाड़ी सेब के अलावा कई अलग-अलग तरह के फलों का उत्पादन होता है। हालांकि इन दिनों क्षेत्र के बगीचों में विदेशी प्रजाति के सेबों के पेड़ किसानों के लिए काफी फायदेमंद हो रहे हैं।
बीते 3-4 वर्षों में पहाड़ के फल पट्टी क्षेत्रों में विदेशी सेब के बगीचे काफी ज्यादा बढ़े हैं। जहां इटली के डिलीशियस, फैनी स्काटा, स्कर्ट लेट स्पर, जर्मन प्रजाति के रेड चीफ, ग्रीन स्मिथ का उत्पादन हो रहा है, तो वहीं हॉलैंड के रेड स्पर डिलीशियस, रेड कॉर्न, मिजगाला, किंग रॉड, रेड लमगाला के साथ अन्य विदेशी प्रजाती के सेबों का भी उत्पादन किया जा रहा है। इन सेबों की डिमांड दिल्ली, कोलकाता और अन्य महानगरों के साथ-साथ विदेशों में भी है। उत्तराखंडी सेब उत्पादकों को नहीं मिल रहे उचित दाम, 12 साल पुराने रेट पर बेचने को मजबूर देशभर में सभी चीजों के दाम हर दिन बढ़ते ही जा रहे हैं। लोग महंगाई से परेशान हैं, लेकिन उत्तराखंड के काश्तकार सेब के दाम नहीं बढ़ने से परेशान हैं। इसकी मुख्य वजह है कि हिमाचल सहित अन्य राज्यों के सेब उत्तराखंड की मंडी में पहुंच रहे हैं। ये सेब उत्तराखंड के सेब के मुकाबले ज्यादा अच्छी क्वालिटी के हैं। जिससे पहाड़ के किसान 12 साल पुरानी कीमत में सेब बेचने को मजबूर हैं।
फल पट्टी का सीमांत किसान बागवान जलवायु परिवर्तन,मौसम,बनिये बिचौलिए और सरकारी तन्त्र की काहिली की मार से त्रस्त हो चुका है। हताश हो चुके बागवान को अब किसी से उम्मीद भी नही है। कभी वास्तविक स्थिति को लिखा समझा बोला जायेगा तो अंदर से रिसते घाव की तरह ये दर्द उभर आयेगा। लेकिन सीमांत किसान बागवान की इस पीड़ा को कौन सुनने देखने वाला है? हिमाचल प्रदेश ने सेब उत्पादन को बढ़ावा देकर तरक्की की कहानी लिख डाली, लेकिन हिमाचल के समान परिस्थितियों वाले उत्तराखंड के सेब के सामने पहचान का संकट आज भी बना हुआ है।
राज्य गठन के 23 साल बाद भी यहां का सेब हिमाचल एप्पल के नाम से बाजार में बिक रहा है। इससे समझा जा सकता है कि आर्थिकी संवारने के मद्देनजर इस नकदी फसल को लेकर राज्य कितना गंभीर है। उत्तराखंड में सेब उत्पादन के कम रहने का एक और मुख्य कारण था अप्रैल में होने वाली ओलावृष्टि। ये ओलावृष्टि भू-मध्य सागर से उठने वाला पश्चिमी विक्षोभ के कारण हर साल अपै्रल माह में होती थी। जिस कारण काश्तकारों की खड़ी फसल का आधा हिस्सा तक नष्ट हो जाता था। जो बच जाती थी, उनमें औलों के जख्म होते थे और उनके अच्छी कीमत मंडी में नहीं मिलता है। इससे भी ज्यादा अजीब बात ये है कि उद्यान विभाग को इस बारे में कुछ नहीं पता।
चलिए अब बात करते हैं पहाड़ों में हो रही सेब की खेती की। प्रदेश में सेब की सर्वाधिक पैदावार उत्तरकाशी में होती है, हर्षिल का सेब रंगत के साथ-साथ क्वालिटी में भी अव्वल माना जाता है। उत्तरकाशी में सेब की खेती साल 1925 में शुरू हुई। इस वक्त जिले में लगभग दस हेक्टेयर क्षेत्रफल में सेब के बगीचे हैं और हर साल करीब 20500 मीट्रिक टन उत्पादन होता है। हर्षिल का सेब तो ए-ग्रेड का है, लेकिन सेब की पैकिंग के लिए पेटियां उपलब्ध नहीं हैं। हर्षिल घाटी की फल एवं विपणन समिति के पदाधिकारी कहते हैं की पेटियां ना होने की वजह से मजबूरन हिमाचल प्रदेश की पेटियों में सेब भर कर बेचने पड़ रहे हैं।
बता दें कि इससे पहले साल 2015 में उद्यान विभाग ने सेब की पैकिंग के लिए हर्षिल एप्पल नाम से पेटियां बनवाई थी, लेकिन पेटियां इतनी घटिया क्वालिटी की थीं, गुणवत्ता पर विशेष फोकस करने हैं।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)