उद्यमशीलता के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण नाम है तुलसीदेवी
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
हर किसी को जीवन में उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ता है जो लोग स्वाभिमान और संघर्ष को जीवन का ध्येय बना लेते हैं वे हर चुनौती का डटकर सामना करते हैं और समाज के लिए सीख छोड़ जाते हैं। तुलसी रावत का जन्म कुमायूँ के परम्परावादी समाज में उस समय हुआ जब लड़कियों का जन्म अच्छा नही माना जाता था।पढ़ाई-लिखाई पूरी तरह निषिद्ध था। इस लिए छोटी उम्र में ही तुलसी का विवाह अल्मोड़ा निवासी दुर्गासिंह रावत के साथ कर दिया गया। इसके ससुर एक संभ्रांत परिवार के राय बहादुर थे। पहाड़ में स्वाधीनता संग्राम की गूंज आते ही तुलसी के पति जो उस वक्त राजस्व विभाग में कार्यरत थे। उन्होंने नौकरी से इस्तीफा देकर स्वाधीनता संग्राम में कूद गई। इस तरह पति-पत्नी दोनों
कुमायूॅ में स्वाधीनता संग्राम से जुड़ गए थे। इस तरह दुर्गा सिंह और तुलसी ने कुमायूॅ के परम्परावादी दकियानूसी समाज से महिलाओं को बाहर निकालते हुए समाज में जन जागरण का कार्य किया।
महिला शिक्षा और स्वालम्बन के साथ राष्ट्रीय विचारों का सघन प्रसार किया। इसी प्रयास में 1929 में अल्मोड़ा के चैहान पाटा में महिला बैठक की अध्यक्षता करते हुए तुलसी रावत ने महिलाओं को चारदीवारी से बाहर निकल कर उन्हें स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। इसके परिणामस्वरूप सावित्री देवी, पार्वती पन्त, मधुली देवी, चम्पा देवी, खष्टी देवी, हंसा देवी बसन्ती और उमूली देवी सहित अनेक महिलाएं राष्ट्रीय संग्राम में कूद गई। इस क्रम में नवम्बर 1932 में अल्मोड़ा शहर में कूर्माचल महिला समाज सुधार सम्मेलन का आयोजन किया गया। एक सप्ताह तक चले इस सम्मेलन ने तुलसी जी के नेतृत्व में आस्था व्यक्त की। सम्मेलन में महिलाओं में देश भक्ति की अलख जगाते हुए तब यह गीत कुमायूॅ में बहुत लोकप्रिय हुआ था। ए बहिन जाग उठा, वीर तत्वों को अपनाओ राष्ट्र की पुकार पर बलिदान हो जाओ।
तुलसी अब एक चर्चित कवयित्री और लेेखिका के रूप में भी स्थापित हो चुकी थी। उसकी रचनाएं तत्कालीन कुमाऊं कुमुघ पत्र में प्रकाशित होने लगी थी। शराब बन्दी खादी का प्रचार और विदेशी वस्त्रों की होली जलाना उसका मुख्य ध्येय बन गया था। आंग्ला सरकार और स्थानीय पुलिस ने कई बार उसके घर पर छापा मारा, किन्तु आपतिजनक साहित्य सामग्री न मिलने पर पुलिस उसे गिरफ्तार नहीं कर सकी। इस तरह
व्यक्तिगत सत्याग्रह और भारत छोड़ो आन्दोलन में भी उसने भूमिगत रह कर सक्रिय भागीदारी निभाई। आजादी के बाद भी 1960 तक वह जोहार महिला संगठन की मंत्री बनी। इससे पूर्व 1948 में उसने हस्त लिखित पत्रिका महिला जागृति का प्रकाशन किया। पत्रिका का मुख्य फोकस सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के साथ जातिवाद और क्षेत्रवाद के विरूद्ध समाज को तैयार करना था।
आजादी के बाद की सरकारों के द्वारा उचित सम्मान और संरक्षण मिलने के कारण उनका लेखन और पत्र अधिक वर्षो तक नही चल सका। स्वाधीनता भारत में भ्रष्टाचार और दकियानूसी समाज से वे बेहद चिन्तित थी। उन्होंने अपनी संस्था में 1978 से अर्द्धशिक्षित महिलाओं व लड़कियों के लिए एक ‘कंडेस्ड कोर्स’ चलाया। उन्होंने 1980 में ‘ट्राइसेम योजना’ के अन्तर्गत प्रशिक्षण देना शरू किया। जो 1987 तक चला। उन्होंने इन प्रशिक्षित महिलाओं को ‘हाडा’ योजना के तहत ऋण दिलवा कर करघे- कंघी आदि बुनाई के साधन दिलवाए। उन्होंने बालवाड़ी के कार्यक्रम भी चलाए।
आविष्कारक प्रवृत्ति की तुलसी देवी ने 1976 में एक नए प्रकार का शाल बनाया, जिसे उन्होंने ‘तलसी रानी शॉल’ नाम दिया। इसका प्रथम निर्माण आस्ट्रेलियन ऊन पर किया जो उतना सफल न रहा।बाद में अंगोरा ऊन से यह शॉल बनाया, जो अपनी सुन्दरता के कारण लोगों को बहुत पसन्द आया। 1983 में इस शॉल के निर्माण हेतु उन्होंने तुलसी रानी शॉल फैक्टरी बनाई। तुलसीदेवी का महिलाओं के लिए संदेश है- रोओ नहीं आगे बढ़ो। यदि शिक्षित नहीं हो तो अपने हाथों व दिमाग का उपयोग करो. हारो नहीं, भगवान ने तुम्हें शक्ति दी है, उसको बढ़ाओ, अपने पैरों पर खड़ी होजाओ। इसी संघर्ष और गरीबी के बीच 1997 में उनका निधन हुआ।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )