देश के लिए कुर्बान हुए देघाट (Deghat) के इन रणबांकुरों की बात ही कुछ और थी
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
ब्रिटिश भारत में टिहरी रियासत को छोड़ पूरे हिस्से को कुमाऊं ही कहा जाता था। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान इस क्षेत्र में क्रांति की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि शहरी क्षेत्र की अपेक्षा क्रांति का सर्वाधिक विस्तार ग्रामीण क्षेत्र में हुआ था। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान इस क्षेत्र की सबसे महत्तवपूर्ण घटनाएं सालम क्रांति, सल्ट क्रांति, देघाट गोली काण्ड और बोरारौ में स्वायत्तशासी सरकार की स्थापना थे।9अगस्त 1942 को अल्मोड़ा, नैनीताल, गढ़वाल तथा देहरादून जिलों में जगह-जगह जुलूस निकले और हड़तालें हुई। अल्मोड़ा में 9 अगस्त को एक विशाल जुलूस निकाला गया और 10 अगस्त को नगर भर में हड़ताल रही। इसी दिन नैनीताल, हल्द्वानी पिथौरागढ़, पौड़ी, देहरादून और कोटद्वार में भी सभाएं हुईं और गिरफ्तारियां प्रारंभ हुईं। कमीश्नर ऐक्टन, डिप्टी कमीश्नर, के.एस.मिश्र तथा इलाका हाकिम मेहरबान सिंह अल्मोड़ा में दमन के लिये पहुंचे। गवरमेन्ट कॉलेज के छात्रों की सेना और पुलिस से खुलकर मुठभेड़ हुई। पुलिस ने उत्तेजित समूह को नियंत्रित करने के नाम पर लाठियां चलाना प्रारंभ किया। जवाब में छात्रों ने पत्थरों से प्रहार किया। जिससे कमिश्नर ऐक्टन को सिर पर चोट आई।
अल्मोड़ा शहर पर 6000 हजार रुपये का सामूहिक जुर्माना किया गया। ब्रिटिश सत्ता के विरोध की पहली घटना अल्मोड़ा जिले के देघाट नामक स्थान पर हुई। 19 अगस्त 1942 को चौकोट की तीन पट्टियों की एक वृहद सभा का देघाट में आयोजित किया जाना तय हुआ। इस क्षेत्र में ज्योति राम कांडपाल,भैरव दत्त जोशी, मदन मोहन उपाध्याय, इश्वरी दत्त फुलोरिया आदि आंदोलनकारी सक्रिय थे। 19 अगस्त के दिन विनोद(विनौला) नदी के समीप देवी के मंदिर में एक वृहद सभा हुई जिसे पुलिस ने चारों ओर से घेर लिया। शांति पूर्वक चल रही जनसभा के भीतर जाने की हिम्मत पुलिस की न हो सकी लेकिन पुलिस ने सभा से अकेले बाहर निकले एक सत्याग्रही खुशाल सिंह मनराल को हिरासत में ले लिया। जब सत्याग्रहियों को यह बात पता चली तो भीड़ ने घेर कर खुशाल सिंह को छुड़ाने की मांग की। अनियंत्रित भीड़ को काबू में करने के लिये पुलिस ने गोली चला दी। इतिहास में यही घटना देघाट गोली कांड के नाम से जानी जाती है।
इस गोली कांड में हरिकृष्ण उप्रेती, हीरामणि गडोला मौके पर ही शहीद हुए। रामदत्त पांडे और बदरी दत्त कांडपाल को भी इस दौरान गोली लगी। रातों-रात में ही पुलिस शहीदों के शव को देघाट से उदेपुर ले गयी और अगले दिन रानीखेत अंतिम संस्कार सिनौला में किया गया। इसके 8 दिनों बाद पूरे क्षेत्र में अंग्रेजों द्वारा विद्रोह के दमन के नाम पर सार्वजनिक लूट-पाट की गई। उदयपुर, क्यरस्यारी, सिरमोली, गोलना और महरौली गांवों में सामूहिक अर्थदंड लगाया गया। तीस के दशक में बहुत सारी राजनीतिक घटनायें ऐसी थी जिन्होंने आजादी के आंदोलन में लोगों को खुलकर आने का रास्ता तैयार किया।
अगस्त, 1942 आते-आते पूरे पहाड़ का राजनीतिक परिदृश्यबदल गया। च्भारत छोड़ो आंदोलनज् में युवाओं ने बहुत सक्रियता से भाग लिया। देघाट, सल्ट और सालम में गोलीकांड हुये जिनमें आठ लोग शहीद हुये। आज देघाट गोलीकांड की बरसी है। आजादी के मतवालों को शत-
शत नमन। इस गोलीकांड में शहीद हुये हरिकृष्ण उप्रेती और हीरामणि को कृतज्ञतापूर्ण श्रद्धांजलि।च्भारत छोड़ो आंदोलनज् का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है देघाट। अल्मोड़ा जनपद के चौकोट पट्टी का आजादी के आंदोलन मेंअविस्मरणीय योगदान रहा है। महात्मा गांधी के साथ 1930 में डांडी मार्च में भाग लेने वाले दो महत्वपूर्ण नाम थे- ज्योतिराम कांडपाल और भैरवदत्त जोशी।
भैरव दत्त इस यात्रा में लगातार डायरी लिखते रहे। यात्रा के बाद उनका स्वास्थ्य खराब हुआ। फिर गांधीजी की सलाह पर जब 16 अप्रैल, 1930 को रानीखेत पहुंचे। कारणवश भगीरथ पांडे अंतिम समय पर यात्रा में शामिल होने से रह गये थे। नमक सत्याग्रह के बाद ज्योतिराम कांडपाल जी ने देघाट में एक उद्योग भवन की स्थापना की। इसके बाद उन्होंने भूलगांव में इसे चलाया। यह क्षेत्र आजादी और जनचेतना के नये केन्द्र के रूप में पहचान बनाने लगा। कांडपाल जी की चौकोट वापसी के बाद यहां आंदोलन का नया सिलसिला चला। सामाजिक चेतना के साथ इस क्षेत्र के लोगों ने शिक्षा के प्रसार और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ भी उठना शुरू किया। एक तरह से यह दौर आजादी के आंदोलन के चरम पर था। 1939 से 1942 तक पूरा चौकोट आजादी के आंदोलन में शामिल रहा।
व्यक्तिगत सत्याग्रह में 1941 में बहुत सारे लागों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की। जब 9 अगस्त, 1942 को भारत छोड़ो आंदोलनका उद्घोष हुआ तो यहां आंदोलनकारी नये तेवरों के साथ इस आंदोलन से जुड़ गये। इसी की पृष्ठभूमि में मई, 1942 को खुशाल सिंह मनराल के नेतृत्व में चैकोट की तीनों पट्टियों के केन्द्र उदयपुर गांव में एक विशाल कार्यकर्ता सम्मेलन का आयोजन हुआ। इस सम्मेलन में कुमाउं-गढ़वाल के अलावा बड़ी संख्या में बाहर के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने भी भागीदारी की थी। इस सम्मेलन की अध्यक्षता आर्चाय नरेन्द्रदेव जी को करनी थी। किन्ही कारणों से वह नहीं आ पाये। उस समय कांग्रेस के जाने-माने नेता दामोदर स्वरूप ने इस सम्मेलन की अध्यक्षता की थी।
इसमें हजारों की संख्या में कार्यकार्ताओं ने भाग लिया। विनोद नदी के किनारे विशाल मैदान में बने भव्य पांडाल को कमला नेहरूनगर नाम दिया गया। इससे पहले इस तरह के सम्मेलन द्वाराहाट के उभ्याड़ी और चिलियानौला में हुये थे। इनमें भी आर्चाय नरेन्द्र देव और दामोदर स्वरूप शामिल हुये थे। सरदार बल्लभ भाई पटेल की अगुआई में बड़ा किसान आंदोलन के रूप में सत्याग्रह छेड़ा गया। वजह थी किसानों के लगान में 22 फीसद बढ़ोतरी। तत्कालीन प्रांतीय सरकार ने सत्याग्रह को खत्म करने के लिए कड़ी कार्रवाई की। मगर किसानों के तेवरों के आगे ब्रितानी सरकार को झुकना पड़ा। नतीजतन, लगान घटाकर 6.03 प्रतिशत किया गया।
सत्याग्रह की कामयाबी पर मातृशक्ति ने बल्लभ भाई पटेल को सरदार की उपाधि दी। स्वतंत्रता संग्राम के साथ लगान के खिलाफ किसानों का सत्याग्रह अल्मोड़ा के सल्ट में भी शुरू किया गया और खुमाड़ की क्रांति ने ब्रिटिश सरकार की चूलें हिला कर रख दी थी। कुमाऊं दौरे पर पहुंचे महात्मा गांधी ने तब सल्ट के क्रांतिकारियों के सत्याग्रह को स्वराज प्राप्ति में मील का पत्थर बताया था। साथ ही खुमाड़ की क्रांति को कुमाऊं की बारदोली नाम दिया। अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 19 अगस्त को स्याल्दे ब्लॉक के चौकोट क्षेत्र के दो रणबांकुरे हरिकृष्ण उप्रेती और हीरामणि बडोला अंग्रेजों की गोली से शहीद हो गए। अंग्रेजों ने इस क्षेत्र के कई अन्य क्रांतिकारियों को यातनाएं दीं। देश की आजादी में महान योगदान देने वाले इन क्रांतिकारियों को हर साल 19 अगस्त को याद किया जाता है।
अल्मोड़ा जिले के देघाट, सालम व सल्ट की क्रांति ने आजादी के आंदोलन को नई गति प्रदान की। तीनों जगहों पर हुए गोलीकांड में आठ लोग शहादत दी थी। 1939 से 1942 तक जब आंदोलन चरम पर था, अल्मोड़ा के चौकोट में आजादी की आवाज बुलंद रही। मई, 1942 में खुशाल सिंह मनराल के नेतृत्व में चौकोट के उदयपुर गांव में दामोदर स्वरूप की अध्यक्षता में कार्यकर्ता सम्मेलन हुआ। विनोद नदी के किनारे बने पंडाल को कमला नेहरूनगर नाम दिया गया। आंदोलन के मुखिया खुशाल, बंदियों वदो मृतकों को खाटों पर बांधकर प्रशासन 20 अगस्त को उदयपुर के बाणेश्वर महादेव मंदिर के पास पहुंचा। काफिला विनोद नदी किनारे पहुंचते ही उदयपुर के सैकड़ों महिला-पुरुष व बच्चों ने सरकार के खिलाफ नारे लगाए। बंदी आंदोलनकारियों को 21 अगस्त को रानीखेत अदालत ले जाते समय भी जनता ने पुलिस का विरोध किया था। घटना के एक सप्ताह बाद पुलिस फिर देघाट पहुंची और ग्रामीणों को बुलाकर बेतों से पीटा। लेखक कहते हैं कि गांव वालों ने देघाट जैसा दृश्य पहले न कभी देखा था न सुना। आजादी के आंदोलन का जब भी जिक्र आएगा देघाट के प्रतिकार को हमेशा याद किया जाएगा।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )