टिहरी राजशाही के ताबूत में आखिरी कील साबित हुई श्रीदेव सुमन (Sridev Suman) की शहादत
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
राजतंत्रों के इतिहास में शायद ही ऐसे मौके आये होंगे जब किसी राजभक्त की मौत राजशाही के अन्त का कारण बनी होगी। ऐसा उदाहरण भारत की तत्कालीन हिमालयी रियासतों में से सबसे बड़ी टिहरी रियासत में ज़रूर मिलता है, जहां राजभक्त श्रीदेव सुमन की राजशाही की जेल में 84 दिन की भूख हड़ताल के बाद मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु अन्ततः न केवल टिहरी की राजशाही के अन्त का कारण बनी अपितु देश की तमाम लोकतंत्रकामी रियासतों के आन्दोलनकारियों के लिये एक नजीर बन गयी।
सुमन की शहादत का स्वाधीनता आन्दोलन पर भी प्रभाव पड़ा, जिसका उल्लेख पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे राष्ट्रीय नेताओं और तत्कालीन अखबारों ने भी किया। 1947 से पूर्व भारत में राजे-रजवाड़ों का बोलबाला था। कई जगह जनता को अंग्रेजों के साथ उन राजाओं के अत्याचार भी सहने पड़ते थे। श्रीदेव सुमन की जन्मभूमि उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल में भी यही स्थिति थी। उनका जन्म 25 मई, 1916 को बमुण्ड पट्टी के जौल गांव में तारादेवी की गोद में हुआ था। इनके पिता हरिराम बडोनी क्षेत्र के प्रसिद्ध वैद्य थे। प्रारम्भिक शिक्षा चम्बा और मिडिल तक की शिक्षा उन्होंने टिहरी से पाई।
संवेदनशील हृदय होने के कारण वे सुमन उपनाम से कवितायें लिखते थे। अपने गांव तथा टिहरी में उन्होंने राजा के कारिंदों द्वारा जनता पर किये जाने वाले अत्याचारों को देखा। 1930 में 14 वर्ष की किशोरावस्था में उन्होंने नमक सत्याग्रह में भाग लिया। थाने में बेतों से पिटाई कर उन्हें 15 दिन के लिये जेल भेज दिया गया; पर इससे उनका उत्साह कम नहीं हुआ। अब तो जब भी जेल जाने का आह्वान होता, वे सदा अग्रिम पंक्ति में खड़े हो जाते। पढ़ाई पूरी कर वे हिन्दू नेशनल स्कूल, देहरादून में पढ़ाने लगे। इसके साथ ही उन्होंने साहित्य रत्न, साहित्य भूषण, प्रभाकर, विशारद जैसी परीक्षायें भी उत्तीर्ण कीं। 1937 में उनका कविता संग्रह सुमन सौरभ प्रकाशित हुआ। वे हिन्दू, धर्मराज, राष्ट्रमत, कर्मभूमि जैसे हिन्दी व अंग्रेजी पत्रों के सम्पादन से जुड़े रहे। वे हिंदी साहित्य सम्मेलन के भी सक्रिय कार्यकर्ता थे।
उन्होंने गढ़ देश सेवा संघ, हिमालय सेवा संघ, हिमालय प्रांतीय देशी राज्य प्रजा परिषद, हिमालय राष्ट्रीय शिक्षा परिषद आदि संस्थाओं के स्थापना की। 1938 में विनय लक्ष्मी से विवाह के कुछ समय बाद ही श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित एक सम्मेलन में नेहरू की उपस्थिति में उन्होंने बहुत प्रभावी भाषण दिया। इससे स्वाधीनता सेनानियों के प्रिय बनने के साथ ही उनका नाम शासन की काली सूची में भी आ गया। श्रीदेव सुमन का पवित्र बलिदान भारतीय इतिहास में अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण और उल्लेख योग्य है। इससे पहले बोस्र्टल जेल में यतीन्द्र नाथ दास के बलिदान ने देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था और उसके फलस्वरूप भारतीय जेलों में राजनीतिक बंदियों को नाममात्र की सुविधाएं दी गयीं। श्रीदेव सुमन का बलिदान मगर, इससे अधिक उच्च सिद्धान्त के लिये हुआ है। टिहरी राज्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिये आपने बलिदान दिया है। टिहरी के शासन पर पड़ा काला पर्दा इससे उठ गया है।
हमारा विश्वास है कि टिहरी की जनता की स्वतंत्रता की लड़ाई इस बलिदान के बाद और जोर पकड़ेगी और टिहरी के लोग उनके जीवनकाल में अपने लोकनेता का जैसे अनुकरण करते थे, वैसे ही भविष्य में अनुप्राणित होंगे। 1939 में सामन्ती अत्याचारों के विरुद्ध टिहरी राज्य प्रजा मंडल की स्थापना हुई और सुमन इसके मंत्री बनाये गये। इसके लिये वे वर्धा में गांधी से भी मिले। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में वे 15 दिन जेल में रहे। 21 फरवरी, 1944 को उन पर राजद्रोह का मुकदमा ठोक कर भारी आर्थिक दंड लगा दिया गया। पर सुमन तो इसे अपना शासन मानते ही नहीं थे। उन्होंने अविचलित रहते हुए अपना मुकदमा स्वयं लड़ा और अर्थदंड की बजाय जेल स्वीकार की।
शासन ने बौखलाकर उन्हें काल कोठरी में ठूंसकर भारी हथकड़ी व बेड़ियों में कस दिया।राजनीतिक बन्दी होने के बाद भी उन पर अमानवीय अत्याचार किए गये। उन्हें जानबूझ कर खराब खाना दिया जाता था। बार-बार कहने पर भी कोई सुनवाई न होती देख तीन मई, 1944 से उन्होंने आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया। शासन ने अनशन तुड़वाने का बहुत प्रयास किया; पर वे अडिग रहे और 84 दिन बाद 25 जुलाई, 1944 को जेल में ही उन्होंने शरीर त्याग दिया। जेलकर्मियों ने रात में ही उनका शव एक कंबल में लपेट कर भागीरथी और भिलंगना नदी के संगम स्थल पर फेंक दिया। सुमन के बलिदान का अर्घ्य पाकर टिहरी राज्य में आंदोलन और तेज हो गया।
एक अगस्त, 1949 को टिहरी राज्य का भारतीय गणराज्य में विलय हुआ। तब से प्रतिवर्ष 25 जुलाई को उनकी स्मृति में सुमन दिवस मनाया जाता है। उत्तराखंड के निर्माण में श्रीदेव सुमन जैस अमर बलिदानियों का सबसे बड़ा योगदान रहा है। यह देवभूमि के साथ ही नायकों की भूमि भी है, जिन्होंने समय-समय पर अपने रक्त और बलिदान के उदाहरण पेश कर उत्तराखंड के इतिहास को गौरवशाली बनाया है। अब पुराना टिहरी शहर, जेल और काल कोठरी तो बांध में डूब गयी है; पर नई टिहरी की जेल में वह हथकड़ी व बेड़ियां सुरक्षित हैं। हजारों लोग वहां जाकर उनके दर्शन कर उस अमर बलिदानी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
टिहरी राजशाही के खिलाफ 84 दिन भूखे-प्यासे रहकर लड़ी थी लड़ाई श्रीदेव सुमन ने टिहरी राजशाही के खिलाफ 84दिन की ऐतिहासिक भूख हड़ताल की थी। श्रीदेव सुमन को कई यातनाएं दी गई थीं, फिर भी कमजोर नहीं पड़े। इतना ही नहीं उन्हें जेल में कांच की रोटियां खाने को मजबूर किया गया। आज उनकी जयंती पर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई। श्रीदेव सुमन के बलिदान का ही परिणाम था, कि टिहरी रियासत की जनता के अधिकारों की प्राप्ति उनकी शहादत के कुछ ही वर्ष बाद हो गयी। वीरात्मा श्रीदेव सुमन द्वारा जो त्याग और हिम्मत के आदर्श उपस्थित किये, वह चिरकाल तक सदैव लोगो को याद रहेगा। टिहरी ही नहीं हिन्दुस्तान के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में भी श्रीदेव सुमन का नाम सदा अमर रहेगा।
(लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)