घराट (पनचक्की) कभी जिसके इर्द गिर्द ही घूमती थी पहाड़ की जिंदगी
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
पर्वतीय संस्कृति और वहां के सामाजिक तानेबाने में मिठास घोलने वाले घराट अब कम नजर आते हैं। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में स्थाई जलस्रोतों के साथ ही बरसात के मौसम में फूटने वाले चश्मों की संख्या भी लगातार कम होती जा रही है। हालांकि बरसाती चश्मों की कम होती संख्या अथवा इनसे पानी मिलने की अवधि को लेकर फिलहाल कोई अध्ययन सामने नहीं आया है, लेकिन औद्यानिकी और कृषि के जानकारों का कहना है कि राज्य में स्थाई स्रोतों के सूख जाने अथवा उनमें पानी कम हो जाने के साथ ही बरसात के दिनों में लाखों की संख्या में फूटने वाले चश्मों की संख्या और उनकी अवधि में भारी गिरावट आई है।वैज्ञानिक इसका कारण अनियमित बारिश, बंजर पड़ती खेती की भूमि और लगातार हो रहे निर्माण कार्यों को मानते हैं। बरसाती चश्मों की संख्या किस तरह कम होती जा रही, इसे दो उदाहरणों से समझा जा सकता है।
रुद्रप्रयाग जिले के रायड़ी गांव की निवासी और पर्यावरण आंदोलनों में सक्रिय रही बताती हैं कि उनके गांव के आसपास दो तरह के सोते हैं। तीन सोते बारहमासी हैं, जिनमें पूरे वर्ष पानी आता है, हालांकि सर्दियों और गर्मियों में इनका पानी कम हो जाता है। इसके अलावा चार ऐसे सोते हैं जो बरसात के दिनों में फूटते हैं। सदियों से उत्तराखंड के पर्वतीय समाज का अटूट हिस्सा रही है, जो अब आमतौर पर नहीं दिखती। इसे स्थानीय भाषा में पनचक्की, घट, घराट समेत कई नामों से जाना जाता है। यह पानी से चलती है और इसमें गेहूं, जौ, मंडुवा आदि अनाजों को पीसा जाता है। पौष्टिक व शुद्ध आटा देने के साथ ही बिजली उत्पादन की संभावनाओं को अपने में समेटे घराट (पनचक्की) कभी पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के लिए जीवनदायनी की तरह थे लेकिन समय के साथ अब इनका अस्तित्व खत्म हो रहा है।
इसका महत्व इससे समझा जा सकता है कि राज्य में चंद शासनकाल के ताम्रपत्रों में घराटों का उल्लेख मिलता है। जब तकनीक नहीं थी तो इसने लोगों के कठिन जीवन को काफी सरल बना दिया था। बिजली से चलने वाली आटा चक्कियों के अस्तित्व में आने एवं सरकारी उदासीनता के चलते घराट अब लुप्तप्राय हो चले हैं जबकि कभी यह पर्वतीय जनजीवन का मुख्य हिस्सा रहे थे। घराट के कल-पुर्जों यानी पैन्याली, फितौड़ी, पाटी, तौंकाना, पत्थर, किल, डौका, चड़ी, पंखुड़ियां को बनाने वाले कारीगर भी अब नहीं रहे। आज भी पूरे हिमालयी क्षेत्र में पांच लाख से अधिक घराट सुधारीकरण की राह देख रहे हैं। उरेडा के द्वारा बंद पड़े घराटों को संचालित करने की योजना भी अमल में नहीं आ पा रही है घराट का निर्माण नदियों, गधेरों या फिर गाड़ के किनारे किया जाता है। इससे बिजली भी उत्पादित की जा सकती है।पानी के वेग से चलने वाले घराटों की खासियत यह है कि इसमें गेहूं बड़ी बारीकी से पिसता है। इसका आटा भी बेहतर होता है। प्रदेश में 13हजार घराट चिंहित हैं।लेकिन पूरे राज्य में इसकी संख्या 30 हजार के आस-पास बताई जाती है।
वैकल्पिक ऊर्जा संस्थान (उरेडा) ने घराटों से बिजली पैदा करने का जिम्मा लिया था जिसके तहत पिथौरागढ़ में70 घराटों का आधुनिकीकरण भी किया था लेकिन यह लोगों तक रोशनी पहुंचा पाने में विफल साबित हुआ। घराटों के आधुनिकीकरण के पीछे का उद्देश्य बहुउद्देश्यीय माना गया था। बागेश्वर जनपद में किसी समय 2000 के आस-पास घराट थे। इसी तरह पिथौरागढ़ में 50 घराट चलते थे। अल्मोड़ा जिले में 150 घराट थे। इन घराटों के आधुनिकीकरण के नाम पर लाखों रुपए खर्च हो गए लेकिन घराटों की बिजली से गांव रोशन नहीं हो पाए। बिजली से चलने वाली चक्की ने ऊर्जा की इस सस्ती तकनीक को भी उपेक्षित कर दिया। एक घराट से 3 केवी तक बिजली का उत्पादन हो सकता है। लेकिन लोक विज्ञान की अवहेलना के चलते यह नहीं हो पा रहा है। उरेड़ा के आंकड़ों के अनुसार राज्य में 20 हजार घराट बिखरे पड़े हैं।
राज्य गठन के बाद उत्तराखण्ड सरकार ने राज्य की माली हालत को ठीक करने के लिए बेकार पड़े घराटों को लघु उद्योगों का दर्जा प्रदान करने व इन्हें बहुउद्देश्यीय सेवा केंद्रों (घराट) के रूप में विकसित करने के प्रयास किए थे और उत्तरांचल उर्जा विकास अभिकरण उरेड़ा को इसकी जिम्मेदारी सौंपी थी। राज्य के जिलाधिकारियों के लिए इस हेतु दिशा-निर्देश भी जारी किए थे। लेकिन समय के साथ सरकार की यह महत्वपूर्ण पहल भी दम तोड़ गई।उरेड़ा विभाग के मुताबिक इस समय राज्य में 20 हजार घराट हैं जो पुनर्जीवित होकर बिजली पैदा कर सकते हैं।
राज्य के पूर्व मुख्य सचिव रहे स्व आरएस टोलिया ने इसमें दिलचस्पी दिखाई थी। राज्य के कई घराटों का उन्होंने निरीक्षण भी किया था और इसके सुधारीकरण की तरफ कदम बढ़ाए थे। उस समय कोशिश तो यह थी कि हर जिले में अधिक से अधिक घराट स्थापित किए जाएंगे। तब बड़े जोर-शोर से प्रचारित किया गया था कि राज्य में उत्तरा बहुउद्देश्यीय सेवा केंद्र के सुदृढ़ीकरण की कार्य योजना तैयार कर ली गई है, इसे महत्वाकांक्षी एवं जनहितकारी योजना बताते हुए इसे अभियान के तौर पर चलाने का निर्णय लिया गया था। कहा गया कि उरेड़ा परम्परागत घराटों के सुदृढ़ीकरण का कार्य पूरे प्रदेश पर बड़े स्तर पर चल रहा है।
इन घराटों को राज्य में चल रही विभिन्न योजनाओं से जोड़े जाने की बात कही गई थी। इन घराटों के माध्यम से 5 किलोवाट तक यांत्रिक एवं विद्युत ऊर्जा पैदा की जानी थी। योजना के सफल संचालन की जिम्मेदारी जिलाधिकारियों के ऊपर थी। इसके तहत समय-समय पर जनपद स्तर पर समीक्षा भी होनी थी ताकि जनपद स्तर पर कार्ययोजना बन सके और इसका अन्य विभागों से तालमेल स्थापित हो सके। इसमें घराट स्वामियों को घराट के संचालन के लिए प्रशिक्षण दिए जाने की व्यवस्था भी थी। प्रशिक्षण की जानकारी एवं लाभार्थियों के त्रिपक्षीय अनुबंध की जानकारी जिलाधिकारी को रखनी थी।
घराट स्वामियों का जिला स्तर पर संगठन भी स्थापित होना था जिसे सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम 1860 के अंतर्गत पंजीकृत किया जाना था।राज्य में तकनीकी संस्थानों आईटीआई, पॉलीटेक्निक को घराटों के निर्माण, मरम्मत, रखरखाव एवं तकनीकी सहायता उपलब्ध करानी थी। तकनीकी सहायता उपलब्ध कराने के लिए पैरा तकनीशियनों की उपलब्धता भी होनी थी। इसमें पैरा तकनीशियनों का चयन, चिन्हीकरण और प्रशिक्षण को भी समयबद्ध कार्य योजना उरेड़ा के जिला स्तरीय समिति के माध्यम से तथा विकासखंड स्तरीय पंजीकृत समितियों के माध्यम से कराया जाना था। स्वयं सहायता समूहों को भी इससे जोड़ने की प्लानिंग थी ताकि वह अपने अनाज की पिसाई, धान कुटाई, तेल पिराई, रूई व ऊन धुनाई, डिब्बा बंदी आदि आर्थिक कार्यक्रयों को आसानी से अंजाम दे सके। शुरुआत में बड़े जोर-शोर से प्रदेश स्तर पर दो राज्य स्तरीय विपणन केंद्र व विकासखंड स्तर पर विकासखंड विपणन केंद्र प्रारंभ करने के दावे किए गए। लेकिन वही ढाक के तीन पात।
परंपरागत तकनीक से रोजगार पैदा करने एवं बिजली पैदा करने की योजनाएं फिलहाल कागजों तक ही सीमित हैं। उल्लेखनीय है कि कम लागत में घराटों का सुधारीकरण किया जा सकता है। 20 से 25 हजार के बीच घराटों का सुधारीकरण किया जा सकता है। इसका तकनीकी डिजाइन भी ज्यादा जटिल नहीं है। बिजली एवं डीजल से चलने वाली चक्कियों से निकलने वाला कार्बन जो पर्यावरण को प्रदूषित करने में सहायक है, से भी निजात पाया जा सकता है। राज्य की ये वाटर मिलें राज्य के गांवों की आर्थिकी को भी मजबूत करने का काम कर सकती हैं। इसकी तकनीकी भी साधारण होती है। घराटों का अस्तित्व खत्म हो रहा है। सरकारी उदासीनता के चलते परंपरागत तकनीक रोजगार का जरिया नहीं बन पाई है। न ही घराट (पनचक्की) को बहुउद्देश्यीय सेवा केंद्र में बदलने की कवायद रंग ला पाई है।
अगर का घराटों का सुधारीकरण किया जाए तो यह स्वरोजगार की राह भी खोल सकता है। इससे आय के नए स्रोत्र भी पैदा होते एवं गांवों की आर्थिकी को मजबूत करने में इससे मदद मिलती घराट में पिसा आटा, जौ, चौसा (काली दाल) शरीर के लिए बहुत लाभकारी होता है। इससे हमें आर्थिक लाभ तो होता ही है, लोगों की सेहत भी सुधरती है। सरकार अगर विलुप्त होते घराट पर ध्यान दे तो यह पहाड़ की पहचान को जीवित रखेगा और यहां के लोगों की आजीविका का भी सहारा बनेगा। जमाने से चले रहे आ रहे पहाड़ में घराटों के संरक्षण व बढ़ावा देने की दिशा में सरकारों की ओर से कोई कार्ययोजना तैयार नहीं की गई। नब्बे के दशक के समय तक घराटों का बहुत महत्व था।
घराट संचालक घराटों में गेहूं पीसने के साथ ही बिजली उत्पादन के क्षेत्र में भी कार्य करते थे, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में इससे रोजगार भी सृजित होते थे। लेकिन अत्याधुनिक मशीनों का निर्माण व जलविद्युत परियोजनाएं बनने से इसके अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने शुरू हो गए। घराटों के बंद होने का बड़ा कारण पानी की कमी के साथ ही विभाग की ओर से समय-समय पर घराट संचालकों को प्रोत्साहन न मिलना है। अत्याधुनिक मशीनों के निर्माण होने से भी इन पर संकट आए। वहीं तत्कालीन प्रदेश2014की सरकार ने अपने शासनकाल में पहाड़ के ग्रामीण अंचलों में घराटों को पुनर्जीवित कर इनसे बिजली उत्पादन करने की योजना बनाई थे, लेकिन वह भी साकार न को सकी।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )