गुड़ की मिठास-घुघुतिया का स्वाद घोलता उत्तरायणी का त्योहार
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
हमारे देश की संस्कृति, संस्कार, त्यौहार, खान-पान, रहन-सहन ही हमारी देश की पहचान है जिनमें अपनत्व सौहार्द हर्षोल्लास विद्यमान है। बहुत महत्वपूर्ण है हमारे आस-पास के पशु-पक्षी। हमारी संस्कृति हमें सभी जीव-जंतुओं से प्यार मोहब्बत सिखाती हैं। बिना पक्षियों के घर भी सुना लगता है जब आस-पास चहकते है तो अपनत्व सौहार्द की अनुभूति होती है। उत्तराखंड की संस्कृति और परम्परा यहां के लोगों के लिए किसी धरोवर से कम नहीं है यहीं वजह है कि आज भी लोग इस संस्कृति को अपने पूर्वजो को विरासत मानते है वो विरासत जिसे आज की पीढ़ी आगे बढ़ा रही है। कुछ ऐसी ही विरासत को समेटकर आगे बढ़ उत्तराखंड के कुमाऊ मंडल में मनाए जाने वाला घुघुतिया त्यौहार जिसे मकर संक्रांति के दिन मनाया जाता है, पूरे देश में मनाया जाना वाला मकर संक्रांति का त्यौहार कुमाऊ में घुघुतिया त्यार से मनाया जाता है।
उत्तराखंड के कुमाऊं का खास त्योहार घुघुतिया पर्व अपने आप में एक अनोखा पर्व है जिसकी एक खास कहानी इस पर्व को और खास बनाती है। पक्षियों को लेकर वैसे तो हमारे देश सहित दुनिया में कई पर्व मनाए जाते हैं लेकिन कुमाऊं के इस खास पर्व का केंद्र कौआ है।इस दिन एक विशेष प्रकार का व्यंजन घुघुत बनाया जाता है। इस त्योहार की अपनी अलग पहचान है, इस त्यौहार को उत्तराखंड में “उत्तरायणी” के नाम से मनाया जाता है जबकि गढ़वाल में इसे पूर्वी उत्तरप्रदेश की तरह ‘खिचड़ी सक्रांति’ के नाम से मनाया जाता है। यह त्योहार विशेषकर बच्चों और कौओं के बीच एक संवाद भी है। इस त्यौहार के दिन सभी बच्चे सुबह उठकर कौओं को बुलाकर घुघुतिया सहित कई तरह के पकवान खिलाते हैं।
इस दिन बच्चे आवाज लगाकर काले कौआ काले घुघुती बड़ा खाले ,लै कौआ बड़ा ,आपु सबुनी के दिए सुनक ठुल ठुल घड़ा ,रखिये सबुने कै निरोग, सुख समृधि दिए रोज रोज कहते नजर आते हैं जिसका अर्थ होता है काले कौआ आकर घुघुती (इस दिन के लिए बनाया गया पकवान) , बड़ा (उरद का बना हुए पकवान) खाले , ले कौव्वे खाने को बड़ा ले और सभी को सोने के बड़े बड़े घड़े दे,सभी लोगो को स्वस्थ रख और समृधि दे। इस पर्व को मनाने के पीछे एक लोकप्रिय लोककथा प्रचलित है कि जब कुमाउं में चन्द्र वंश के राजा राज करते थे , तो उस समय राजा कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी, संतान ना होने के कारण उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं था। उनका मंत्री सोचता था कि राजा के मरने के बाद राज्य की बागडोर उसके हाथ में आ जाएगी।
एक बार राजा कल्याण चंद अपनी पत्नी के साथ बागनाथ मंदिर के दर्शन के लिए गए और वहां उन्होंने संतान प्राप्ति की कामना की और कुछ समय बाद राजा कल्याण चंद को संतान का सुख प्राप्त हो गया, जिसका नाम ‘निर्भय चंद’ पड़ा। राजा की पत्नी अपने पुत्र को प्यार से ‘घुघुती’ के नाम से पुकारा करती थी और अपने पुत्र के गले में ‘मोती की माला’ बांधकर रखती थी। मोती की माला से निर्भय का विशेष लगाव हो गया था इसलिए उनका पुत्र जब कभी भी किसी वस्तु की हठ करता तो रानी अपने पुत्र निर्भय को यह कहती थी कि ‘हठ ना कर नहीं तो तेरी माला कौओ को दे दूंगी’ उसको डराने के लिए रानी ‘काले कौआ काले घुघुती माला खाले’ बोलकर डराती थी। ऐसा करने से कौऐ आ जाते थे और रानी कौओ को खाने के लिए कुछ दे दिया करती थी। धीरे धीरे निर्भय और कौओ की दोस्ती हो गयी, दूसरी तरफ मंत्री घुघुती (निर्भय) को मार कर राज पाठ हड़पने की उम्मीद लगाये रहता था ताकि उसे राजगद्दी प्राप्त हो सके।
एक दिन मंत्री ने अपने साथियों के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा। घुघुती (निर्भय) जब खेल रहा था तो मंत्री उसे चुप चाप उठा कर ले गया। जब मंत्री घुघुती (निर्भय) को जंगल की ओर ले जा रहा था तो एक कौए ने मंत्री और घुघुती(निर्भय) को देख लिया और जोर जोर से कांव-कांव करने लगा, यह शोर सुनकर घुघुती रोने लगा और अपनी मोती की माला को निकालकर लहराने लगा, उस कौवे ने वह माला घुघुती(निर्भय) से छीन ली,उस कौवे की आवाज़ को सुनकर उसके साथी कौवे भी इक्कठा हो गए एवम् मंत्री और उसके साथियों पर नुकीली चोंचो से हमला कर दिया, हमले से घायल होकर मंत्री और उसके साथी मौका देख कर जंगल से भाग निकले। इधर राजमहल में सभी घुघुती(निर्भय) के अचानक गायब हो जाने से परेशान थे, तभी एक कौवे ने घुघुती(निर्भय) की मोती की माला रानी के सामने फेंक दी, यह देखकर सभी को संदेह हुआ कि कौवे को घुघुती (निर्भय) के बारे में पता है इसलिए सभी कौवे के पीछे जंगल में जा पहुंचे और उन्हें पेड़ के निचे निर्भय दिखाई दिया। उसके बाद रानी ने अपने पुत्र को गले लगाया और राज महल ले गयी। जब राजा को यह पता चला कि उसके पुत्र को मारने के लिए मंत्री ने षड्यंत्र रचा है तो राजा ने मंत्री और उसके साथियों को मृत्यु दंड दे दिय। घुघुती के मिल जाने पर रानी ने बहुत सारे पकवान बनाये और घुघुती से कहा कि अपने दोस्त कौवों को भी बुलाकर खिला दे और यह कथा धीरे-धीरे सारे कुमाउं में फैल गयी और इस त्यौहार ने बच्चों के त्यौहार का रूप ले लिया।
तब से हर साल इस दिन धूम धाम से इस त्यौहार को मनाया जाता है। इस दिन मीठे आटे से जिसे घुघुत भी कहा जाता है उसकी माला बच्चों को पहनाई जाती है और पकवान बनाकर बच्चों द्वारा कौवों को खिलाया जाता है। शास्त्रों के अनुसार घुघुतिया त्यौहार की ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने उनके घर जाते हैं इसलिए इस दिन को मकर सक्रांति के नाम से ही जाना जाता है।
महाभारत की कथा के अनुसार भीष्म पितामह ने अपने देह त्याग ने के लिए मकर सक्रांति का ही दिन चुना था। यही नहीं यह भी कहा जाता है कि मकर सक्रांति के दिन ही गंगा भागीरथी के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं। साथ ही साथ इस दिन से सूर्य उत्तरायण की ओर प्रस्थान करता है,उत्तर दिशा में देवताओं का वास भी माना जाता है इसलिए इस दिन जप-तप,दान-स्नान, श्राद्ध-तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। सूर्य के धनु राशि से निकलकर मकर में प्रवेश करने के पर्व मकर संक्रांति को कुमाऊं में घुघुतिया त्यार नाम से जाना जाता है। मकर संक्रांति पर पवित्र नदियों में स्नान करने के साथ दान व पुण्य का महत्व तो है ही, कुमाऊं में मीठे पानी में से गूंथे आटे से विशेष पकवान बनाने का भी चलन है। बागेश्वर से चम्पावत व पिथौरागढ़ जिले की सीमा पर स्थित घाट से होकर बहने वाली सरयू नदी के पार (पिथौरागढ़ व बागेश्वर निवासी) वाले मासांत को यह पर्व मनाते हैं। जबकि शेष कुमाऊं में इसे संक्रांति के दिन मनाया
जाता है।
गांवों से निकलकर हल्द्वानी व दूसरे शहरों में बस गए लोग अपनी माटी से भले दूर हो गए हों, लेकिन घुघुतिया त्यार मनाने की परंपरा आज भी वही है। घुघुतिया के दूसरे दिन बच्चे काले कौआ, घुघुती माला खाले की आवाज लगाकर कौए को बुलाते हैं। पहाड़ हमारी रग-रग में बसा है। नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज से परिचित कराना हमारी ही जिम्मेदारी है। बच्चे हमारी देखा-देखी सीखते हैं।आज भी प्रत्येक स्वजन , रिश्तेदारों के लिए घुघुते की माला बनती है। यह जरूर है कि शहर में कौए नहीं दिखने से गाय, कुत्ते को पहले घुघुते खिलाने लगे हैं।
उत्तराखंड में हर तीज-त्योहार का अपना अलग ही उल्लास है। यहां शायद ही ऐसा कोई पर्व होगा, जो जीवन से न जोड़ता हो। ये पर्व-त्योहार उत्तराखण्डी संस्कृति के प्रतिनिधि भी हैं और संस्कारों के प्रतिबिंब भी। हम ऐसे ही अनूठे पर्व ‘मकरैंण’ से आपका परिचय करा रहे हैं। यह पर्व गढ़वाल, कुमाऊं व जौनसार में अलग-अलग अंदाज में मनाया जाता है। मकर संक्रान्ति का त्यौहार उत्तराखण्ड में उत्तरायणी, उत्तरैण आदि नामों से जाना जाता है। उत्तरायणी शब्द उत्तरायण से बना है। उत्तरायण मतलब जब सूर्य उत्तर की ओर जाना शुरू होता है। दरअसल, त्योहार एवं उत्सव देवभूमि के संस्कारों में रचे-बसे हैं। पहाड़ की ‘पहाड़’ जैसी जीवन शैली में वर्षभर किसी न किसी बहाने आने वाले ये पर्व-त्योहार अपने साथ उल्लास एवं उमंगों का खजाना लेकर भी आते हैं। हिन्दुओं के सबसे पवित्र धार्मिक आयोजनों में से एक मकर सक्रांति भी है। सूर्य ग्रह के मकर राशि में प्रवेश करने के कारण मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 15 जनवरी को पड़ रहा है। मकर संक्रान्ति के दिन गंगा स्नान और दान पुण्य का विशेष महत्व है। साल 1982 में उत्थान मंच में उत्तरायणी मेले का पहली बार आयोजन किया गया था।
चार दशक बाद भी पूरे रीति-रिवाजों के साथ इस त्योहार को मनाया जाता है। भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में मकर संक्रांति के पर्व को अलग-अलग तरह से मनाया जाता है। आंध्रप्रदेश, केरल और कर्नाटक में इसे संक्रान्ति कहा जाता है और तमिलनाडु में इसे ‘पोंगल पर्व’ के रूप में मनाया जाता है।पंजाब और हरियाणा में इस समय नई फसल का स्वागत किया जाता है और लोहड़ी पर्व के रूप में मनाया जाता है। वहीं असम में ‘बिहू पर्व’ के रूप में इस पर्व को उल्लास के साथ मनाया जाता है। उत्तरायणी का त्यौहार जीवन में सकारात्मक सोच के साथ सदैव कर्म के पथ पर आगे बढ़ने की भी प्रेरणा देता है। यह पावन पर्व मांगलिक कार्यों के शुभारम्भ से भी जुड़ा है। वहीं उत्तरायणी पर्व सम्पूर्ण कुमाऊं का प्रसिद्व मेला है।
बागेश्वर में इस अवसर पर प्रातः काल से ही दूर-दूर से श्रद्धालुओं, भक्तजनों ने आकर मुंडन, जनेंऊ संस्कार, स्नान, पूजा अर्चना की। मान्यता है कि वर्ष में सूर्य देव छः माह दक्षिणायन में व छः माह उत्तरायण में रहते हैं। मकर संक्रान्ति से सूर्य उत्तरायण में प्रवेश करते है। इस समय संगम में डुबकी लगाने से सारे पाप धुल जाते हैं। इस मौके पर मेले में बाहर से आये कलाकारों द्वारा विशेष नाटाकों व स्थानीय कलाकारों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से स्थानीय संस्कृति का प्रदर्शन किया। भगवान सूर्य की आराधना का यह पर्व हम सबके जीवन में नई ऊर्जा और उत्साह का संचार करता है।आज हमें पारम्परिक त्यौहारों से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। इन प्रचलित पौराणिक दंत कथाओं एवम त्यौहारों को बढ़ावा देकर आने वाली पीढ़ी को आकर्षित करना अनिर्वाय है। मकर संक्रांति लोहड़ी सभी त्यौहार खुशी के प्रतीक है। हमारे पूर्वजों ने हमे मौसम के हिसाब से खान-पान रहन-सहन सीखाया है। हर वस्तु विशेष पर ध्यान दिया है। चाहे सूर्य, चन्द्र, तारे अग्नि जल, थल, पेड़, जंतु, पक्षी हो या मौसम रंग या फिर ब्रह्माण्ड सभी का महत्व हमारे जीवन में सर्वोपरि है।
आज भी माँ के हाथ के पकवान और घुघुति की खुशबू मुझे मेरे पहाड़ की तरफ आकर्षित करती है। जहाँ लगभग हर महीने के संक्रांत में त्यौहार मनाए जाते थे। पूड़ी, खीर, हलुवा, दाल बड़े गरम पकोड़े, आलू के गुटके और खीरे का रायता जिसमें राई पीसकर डाली जाती है, अहा मुँह में पानी आ जाता है और ऐसे त्यौहारों को प्रचलित करके हम अपनो के करीब होते है। घर में त्यौहारों के बहाने आना जाना लग रहता है। और बधाई शुभकामनाएं देने की परम्परा सदा बनी रहती है। आज के दिन घुघुति बनेगी लेकिन पंछी का अस्तित्व बचाना भी हमारा परम् कर्तव्य है। तभी तो आने वाली सुबह कौवे आकर घुघुति का मज़ा ले पायंगे औरहमारी आने वाली पीढ़ी त्यौहारों की ख़ुशी को अपनो के संग बाँट पायेगी।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )