पयां (पदम्) का वृक्ष देवताओं का वृक्ष माना जाता है
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के अलावा कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, भूटान, सिक्किम, असम के अकाइ और खासिया पहाड़ियों, मणिपुर, म्यांमा, पश्चिमी चीन आदि क्षेत्रों में भी पाया जाता है। उत्तराखंड ही नहीं हिमांचल प्रदेश और नेपाल में भी शादी विवाह से लेकर विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों में पयां का उपयोग होता है। खुशहाल वैवाहिक जीवन के लिये पयां के पेड़ की पूजा किये जाने और विभिन्न कर्मकांडों में इसकी पत्तियां और लकड़ी का उपयोग करने का रिवाज है।
उत्तराखंड के लिहाज से इस वृक्ष का बडा ही महत्व है। साथ ही यह उत्तराखंड की संस्कृति से जुडा है मवैशी इसकी घास नही खाते लेकिन जो खाते हैं उस मवैशी के लिऐ यह पोस्टिक आहार है। उत्तराखंड में यह वृक्ष काफी मात्रा में मिलता है लेकिन अब इन पेड़ों की संख्या कम होती जा रही है जो की एक चिंता का विषय बना हुआ है उत्तराखंड में विलुप्ति के कगार पर जा पहुंचे पद्म वृक्ष को लेकर वन विभाग भी लापरवाह बना हुआ है। पद्म वृक्ष के संरक्षण के लिए नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क प्रशासन ने वर्ष 2012 में कैट प्लान के तहत जोशीमठ क्षेत्र में 10 लाख रुपये
खर्च कर एक हजार पौधे रोपने का दावा किया। मगर, एक भी पौधा धरती पर नजर नहीं आया।
हैरत देखिए कि अब विभाग पौधों का संरक्षण न होने के पीछे धनराशि की कमी का हवाला दे रहा है। वन विभाग का दावा है कि उसने सीमांत चमोली जिले के अंतर्गत जोशीमठ से लेकर ढाक तक दस किमी क्षेत्र में सड़क के किनारे पद्म के पौधों का रोपण किया था। असल में जब पौधरोपण होना था, तब पौधों की सुरक्षा के लिए बाहर से डबल ट्री गार्ड भी लगाए जाने थे। बताते हैं कि तब वन विभाग ने पौधे तो रोपे, मगर डबल की जगह सिंगल ट्री गार्ड ही लगाए। जो पौधे रोपे गए थे, उनमें से कुछ को तो मवेशी खा गए और कुछ राहगीरों ने तोड़ डाले। अब इस लापरवाही को छिपाने के लिए नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क प्रशासन धनराशि की कमी का हवाला दे रहा है।
पार्क के उप प्रभागीय वनाधिकारी का कहना है कि पौधरोपण के वक्त वन विभाग की सोच थी कि पहले सिंगल और पौधों के बड़े होने परडबल ट्री गार्ड लगाए जाएं। लेकिन, डबल ट्री गार्ड के लिए अतिरिक्त धनराशि की जरूरत थी, जो उस समय नहीं मिल पाई। पद्म को देव वृक्ष माना गया है। इसके फूल, फल व पत्तों के अलावा छाल भी गुणकारी मानी जाती है। छाल से रंग व दवा का निर्माण होता है। पौष के महीने पर्वतीय अंचल में जब पेड़ों की पत्तियां गिरने लगती हैं और प्रकृति में फूलों की कमी हो जाती है, उस दौरान पद्म वृक्ष हरियाली से लकदक रहता है। पौष के प्रत्येक रविवार को सूर्य की उपासना इसी पवित्र पेड़ की पत्तियां चढ़ाकर की जाती है। धाॢमक आयोजनों में वाद्ययंत्रों को भी पद्म के पेड़ की डंठल से से ही बजाया जाता है। मधुमक्खी पालन के लिए भी पद्म वृक्ष बेहद उपयोगी है। मधुमक्खी इसके फूल से पराग लेकर शहद बनाती है। शीतकाल में पद्म का पेड़ ही मधुमक्खी का मुख्य आसरा है। यही कारण है कि इसके पराग से बने शहद को सर्वाधिक गुणकारी माना जाता है।
रोजेशी वंश के इस पेड़ का वानस्पतिक नाम प्रुन्नस सीरासोइडिस है। आर्द्रता वाले क्षेत्रों में होने के कारण इसकी लकड़ी भी चंदन के समान पवित्र मानी जाती है। मवेशियों के लिए इसका चारा काफी पौष्टिक माना जाता है। इसकी पत्तियों को मवेशी बेहद चाव से खाते हैं। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में देववृक्ष पद्म विलुप्ति की कगार पर है। धार्मिक महत्व वाले इस पेड़ को लोग बहुत ही पवित्र मानते हैं। अब इस पेड़ की गिनती संरक्षित श्रेणी के वृक्षों में होने लगी है। इस पेड़ के फूल, पत्ते ही नहीं बल्कि छाल भी लाभकारी है। इसके छाल से रंग व दवा का निर्माण किया जाता है। इस प्रकार यह पेड़ मानव के लिए कुदरत का अनोखा उपहार है।
इस पेड़ की विशेषता यह है कि पर्वतीय अंचल में जब पौष माह में सभी पेड़ों की पत्तियां गिर जाती हैं व प्रकृति में फूलों की कमी हो जाती है उस दौरान यह पेड़ हरा भरा हो जाता है। इसके वितरीत अन्य सभी पेड़ों में वसंत ऋतु में फूल व पत्ते आते हैं। पयां के इस गुणकारी पवित्र वृक्ष को बचाने के लिऐ सरकार की ओर से जोर दिया जा रहा है हालांकि सरकारी काम हमेशा ही अधूरे होते हैं। इसलिऐ जरूरी है कि हम लोगों को इसको बचाने के लिऐ एक मुहिम चलानी होगी उपयोग के लिए इसे छोटे मे ही काटना सबसे बडा अफराद है। सोचो यदि यह वृक्ष एक बार बडा हो जाता है तो कई तरह से यह हम लोगों को फायदा पहुंचाता है। लेकिन हम उस इस बात को नही समझते हम यह नही सोच पाते कि एक दिन यह वृक्ष बडा होगा इसपे फूल लगेगें उन फूलों का मधुमखियां रस पान करेंगी ओर फिर गुणकारी कार्तिकी शहद उत्तराखंड को मिलेगा।
इसलिऐ हमे नीजि स्वार्थ को त्यागकर इस वृक्ष को सबके लिऐ अपनी आनी वाली पीढ़ी के लिऐ पनपने देना होगा ताकि वो भी इस पेड़ का उसी तरह फ़ायदा ले सकें जिस तरह हमने लिया है। फिर कहीं वो भी इसे बचाने की मुहीम आगे बढ़ाएंगे। उत्तराखंड के अलावा कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, भूटान, सिक्किम, असम के अकाइ और खासिया पहाड़ियों, मणिपुर, म्यांमा, पश्चिमी चीन आदि क्षेत्रों में भी पाया जाता है। उत्तराखंड ही नहीं हिमांचल प्रदेश और नेपाल में भी शादी विवाह से लेकर विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों में पयां का उपयोग होता है। खुशहाल वैवाहिक जीवन के लिये पयां के पेड़ की पूजा किये जाने और विभिन्न कर्मकांडों में इसकी पत्तियां और लकड़ी का उपयोग करने का रिवाज है।
लोककथाओं के अनुसार, एक खेत में या गाँव के आसपास च्पय्याज् वृक्ष का अंकुरण आनंद का क्षण होता है। पेड़ के अंकुरण का जश्न मनाने के लिए, उत्तराखंड में कई लोक गीत लोकप्रिय हैं। दिनेश चंद्र बलूनी ने अपनी पुस्तक सीमांत जनपद चमोली इतिहास और समाज में पय्या वृक्ष की प्रशंसा में गाये जाने वाले एक लोकगीत का वर्णन किया है।
नयी डाली पय्याँ जामी, देवतों की डाली
हेरी लेवा देखी, नयी डाली पय्याँ जामी
नयी डाली पय्याँ जामी, कूली का बिडवाल
नयी डाली पय्याँ जामी, सेरा कीमि चिंडयाल
नयी डाली पय्याँ जामी, क्वीदूद चरियाला
नयी डाली पय्याँ जामी, द्यू करा धूपाणो
नयी डाली पय्याँ जामी, देवतों का सतन
नयी डाली पय्याँ जामी, मुलक लगे धेऊ
नयी डाली पय्याँ जामी, कै देव शोभली
नयी डाली पय्याँ जामी, खितरपाल शोभनी.
गाने के बोल का अनुवाद किया जाए तो इसका अर्थ है: ‘पय्या’ के छोटे से पौधे में अंकुर निकल आए हैं. जितना हो सके पौधे को देखो, यह देवताओं का वृक्ष है. कोई इसे दूध से सींचे. भगवान के आशीर्वाद से नया पौधा बड़ा हो गया है, किसी को अगरबत्ती चढ़ाकर और दीपक जलाकर पौधे की पूजा करनी चाहिए। उत्तराखंड के मशहूर लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के बोल हैं: लय्या, पय्या, ग्वीराल, फूलों ने होलि धरती सजी देख ऐ बसंत ऋतु मा जैई. पेड़ की प्रशंसा में एक और पुराना लोक गीत: सेरा की मिंडोली नै डाली पय्या जामि।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )