लुटता हिमालय (Himalaya) एक साथ कई चुनौतियों

लुटता हिमालय (Himalaya) एक साथ कई चुनौतियों

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

चार धाम यात्रा का महत्व धार्मिक और ऐतिहासिक है। बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को हिंदू धर्म के चार महापर्व में से एक माना जाता है। बद्रीनाथ धाम विष्णु भगवान के दूसरे आवतार के रूप में जाना जाता है, जबकि केदारनाथ शिव भगवान के एक महत्वपूर्ण मंदिर के रूप में जाना जाता है। गंगोत्री और यमुनोत्री हिमालय की दो धाराओं से निकलने वाली नदियों के उत्पादन स्थल हैं उत्तराखंड में दरकते पहाड़, जमीन में धंसते कस्बे, रोजाना हजारों की संख्या में बेरोकटोक तीर्थयात्रियों की आमद और अंधाधुंध निर्माण कुछ ऐसे कारक हैं जिनसे संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र को गंभीर खतरा है। उत्तराखंड में भूस्खलन की खबरें बढ़ रही हैं और चारधाम गंतव्यों में से एक, बद्रीनाथ के प्रवेश द्वार जोशीमठ में लोग उन्हीं घरों में वापस जाने के लिए मजबूर हो रहे हैं जिनमें दरारें पड़ने के कारण वे उन्हें छोड़ कर चले गए थे। पर्यावरणविदों की नजर में सड़क विस्तार परियोजनाएं एक और महत्वपूर्ण कारक हैं जिन्होंने क्षेत्र की स्थिरता के लिए गंभीर खतरा पैदा कर दिया है क्योंकि यह क्षेत्र पहले ही जलवायु जनित आपदाओं के प्रति अत्याधिक संवेदनशील है। मुख्यमंत्री ने हिमालयी धामों में दर्शनार्थियों की अधिकतम दैनिक संख्या तय करने संबंधी अपने निर्णय को वापस ले लिया था। राज्य सरकार ने पहले चारों हिमालयी धामों-बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री में श्रद्धालुओं की अधिकतम दैनिक संख्या निर्धारित करने का फैसला लिया था।

पर्यावरण कार्यकर्ता के अनुसार कि चार धाम यात्रा के लिए राज्य में आने वाले तीर्थयात्रियों की अधिकतम दैनिक संख्या को सीमित करने का फैसला वापस लेना गंभीर चिंता का विषय है। इससे पहले, दैनिक सीमा यमुनोत्री के लिए 5,500 तीर्थयात्री, गंगोत्री में 9,000, बद्रीनाथ में
15,000 और केदारनाथ के वास्ते 18,000 थी। बद्रीनाथ और अन्य तीर्थ स्थलों पर प्रतिदिन तीर्थयात्रियों की बढ़ती संख्या के साथ-साथ वाहनों की संख्या में वृद्धि और आसपास के क्षेत्र में बेरोकटोक निर्माण परियोजनाएं, इस क्षेत्र की पारिस्थितिक और जैविक विविधता के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा पैदा कर रही हैं। उन्होंने कहा, कि जोशीमठ के रास्ते में हेलंग में चार मई को एक पहाड़ दरक गया था। जोशीमठ के बाद उत्तराखंड में और भी कई स्थानों पर जमीन धंस रही है। हर दिन हम सड़कों पर भूस्खलन के कारण लोगों की जान जाने के बारे में सुनते हैं। उत्तराखंड के पहाड़ों में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले से ही महसूस किया जा रहा है, बेमौसम बारिश और बर्फबारी से यात्रा के दौरान मुश्किलें पैदा हो रही हैं। भूवैज्ञानिक ने कहा कि लोगों के अधिक संख्या में आने से यातायात जाम हो जाता है और कचरा भी अधिक निकलता है।

उन्होंने कहा कि ग्लेशियर पिघल रहे हैं और जैव विविधता पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। उत्तराखंड हिमालय के कई अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में दुर्लभ औषधीय पौधे पाये जाते है और कचरा फेंके जाने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के कारण ये भी विलुप्त होने के गंभीर खतरे का सामना कर रहे हैं।हालांकि उच्चतम न्यायालय ने दिसंबर 2021 में अपने आदेश में सड़क की चौड़ाई 10 मीटर करने की अनुमति दी थी। पर्यावरण शोधकर्ता ने कहा कि हिमालय में भूस्खलन का एक प्राथमिक कारण यह है कि सड़कों को चौड़ा करने के लिए ढलानों को काटा जाता है जो पर्वतीय क्षेत्र के लिए गंभीर खतरा है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) खड़गपुर में भूविज्ञन और भूभौतिकी के ने बताया कि हाल के दिनों में उत्तराखंड-हिमाचल प्रदेश क्षेत्र में कई जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण किया जा रहा है, जिसमें बांध या बैराज का निर्माण शामिल है और इसके अपने खतरे हैं।

गौरतलब है कि इस साल दो जनवरी को, जोशीमठ शहर में जमीन धंसने से सैकड़ों लोग विस्थापित हुए थे और उन्हें राहत शिविरों में रहना पड़ा था। उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं का एक लंबा इतिहास रहा है, जिसमें भूकंप, भूस्खलन, बादल फटना और अचानक आई बाढ़ शामिल हैं। इन आपदाओं के कारण हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। हमें उत्तराखंड में उन स्थानों की पहचान करनी चाहिए जहां सदी के अंत तक रहने की अनुकूल परिस्थितियां होंगी और उन्हें जीवित और कायम रखा जाएगा। यह शासन और समुदाय दोनों के लिए एक बड़ी चुनौती है। उत्तराखंड पर हुए इस अध्ययन में कहा गया है कि इसके परिणामस्वरूप पारंपरिक फसलों की खेती और पशुपालन से इतर फल, सब्जियां, फूल, दूध का उत्पादन शुरू हुआ जिसे पास के गांवों से लेकर नजदीकी शहरी बाजारों में बिक्री के लिए भेजा जाने लगा। गांवों के उत्पादन पैटर्न में यह बड़ा बदलाव था। अध्ययन कहता है कि हिमालय में कस्बों के विकास के कारण, वन आधारित कृषि जो ग्रामीण भोजन और आजीविका का मुख्य स्रोत थी, घटती चली गई। अध्ययन में कहा गया है कि ऐसा तब है जब कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता कुल क्षेत्रफल का केवल 15 प्रतिशत है और खाद्य उत्पादन क्षेत्र की वार्षिक खाद्यान्न आवश्यकता का मात्र 35 प्रतिशत ही पूरा करता है। अध्ययन के अनुसार, च्च्निर्वहन की दिक्कतों के कारण, वयस्क पुरुष आबादी का एक बड़ा हिस्सा रोजगार की तलाश में क्षेत्र से बाहर चला जाता है। इसलिए, हिमालय में शहरीकरण मुख्य रूप से ग्रामीण पलायन से प्रेरित आजीविका में कठिनाई का परिणाम है।

सामाजिक और गंगा आह्वान कार्यकर्ता ने बताया कि उत्तराखंड में समतल मैदान बहुत कम हैं। नदियों या सड़कों के पास जोशीमठ जैसे पुराने भूस्खलन के मलबे पर ही इमारतों का निर्माण किया जा सकता है। इस राज्य में सड़क नेटवर्क 1960 के दशक में विस्तारित हुआ जब भारत-चीन युद्ध का समय था। फिर, 20 साल पहले तब और विस्तार हुआ जब उत्तराखंड एक अलग राज्य बना। ध्यानी ने कहा, पहाड़ो में एक छोटे से शहर की कितनी क्षमता हो सकती है, इसे निर्धारित करने की कोई योजना नहीं है। पहाड़ो के शहरी इलाकों में भूजल भंडार कम हो गया है क्योंकि अधिकांश वर्षा सतही अपवाह के माध्यम से हम खो देते है और यह भूमि उपयोग के बदलते पैटर्न के कारण होता है जिसने इस क्षेत्र के कस्बों और शहरों के जल विज्ञान को बदल दिया है। अध्ययन में कहा गया है कि झीलों में पानी कम हो रहा है और झरने सूख रहे हैं।

अध्ययन में कहा गया है, 45 प्रतिशत प्राकृतिक झरने सूख गए हैं और 21 प्रतिशत मौसमी हो गए हैं। 1985-2015 के दौरान नैनीताल के शहरीकृत झील क्षेत्र के जल प्रवाह में 11 प्रतिशत की गिरावट आई है। इतना ही नहीं, भीमताल और नैनीताल झीलों की क्षमता पिछली शताब्दी के दौरान गाद के कारण क्रमशः 5,494और 14,150 क्यूबिक मीटर घट गई है। 30 सालों से शहरी सीमा के आसपास के क्षेत्रों ने हर साल कृषि भूमि का नुकसान झेला है। उत्तराखंड हिमालय के तीन कस्बों, पिथौरागढ़ (12.97 प्रतिशत), बागेश्वर (11.36 प्रतिशत) और अल्मोड़ा (11.36 प्रतिशत) ने शहरी क्षेत्रों के निर्माण के दौरान अतिक्रमण की उच्चतम दर मिली।

(लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)