जानिए भोजपत्रों (Bhojpatra) के संरक्षण के लिए कई दशक पहले हर्षवंती ने ऐसी की थी कड़ी मेहनत
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
भोजपत्र को अंग्रेजी भाषा में बैतूल यूटिल्स के नाम से पहचाना जाता है और यह अधिकतर हमारे भारत देश के हिमालय में पाया जाता है और यह लगभग 4500 मीटर की ऊंचाई पर उगता है। इसकी छाल सफेद रंग की होती है जिसका इस्तेमाल बहुत सालों से विभिन्न प्रकार के ग्रंथों को लिखने में किया जा रहा है, जब कागज का आविष्कार नहीं हुआ था तब से ही भोजपत्र पर विभिन्न प्रकार की जानकारियां लिखी जा रही है
और वर्तमान में भी इसका उपयोग किया जाता है इसके अलावा भोजपत्र का इस्तेमाल कश्मीर में पार्सल को लपेटने के लिए किया जाता है और वर्तमान के समय में भोजपत्र पर कई यंत्र भी लिखे जाते हैं,भोजपत्र का तांत्रिक और ज्योतिस दोनों ही दृष्टि से काफी महत्व है।
हर्षवंती का पूरा जीवन हिमालय संरक्षण से जुड़ा हुआ है। जिन भोजपत्रों के जंगल के नाम पर भोजवासा जगह का नाम पड़ा, उनके ठूंठ ही बाकी रह गए थे, ये देखकर उन्होंने वर्ष 1989 में सेव गंगोत्री प्रोजेक्ट शुरू किया। 1992 से 1996 तक दस हेक्टेअर में करीब साढ़े बारह हजार भोजपत्र की पौध लगाई। आज उनमें से ज्यादातर पेड़ बन गए हैं। वे नब्बे के दशक की तस्वीरें दिखाती हैं जब भोजवासा बंजर दिख रहा था लेकिन आज की तस्वीरों में वहां भोजपत्र के हरे-भरे पेड़ दिखाई दे रहे हैं। वे कहती हैं कि जो पेड़ हमने गंवाए थे, अब फिर बस गए।वे बताती हैं कि भोजबासा में पेड़ों की तीन प्रजातियां हैं, जिसमें भोज, भांगली और पहाड़ी पीपल शामिल है।
इतनी ऊंचाई पर अन्य प्रजातियों के पेड़ों का जीना कठिन हो जाता है। जब तीर्थयात्री और कावंड़िए गोमुख तक आते थे तो पेड़ काटकर चाय या खाना बनाया जाता था। यहीं पर लालबाबा का आश्रम और कुछ अन्य बसावटें भी हैं। जहां तीर्थयात्रियों के ठहरने का इंतज़ाम होता है। आश्रम में चालीस-पचास गाएं रहती थीं तो उनके चारे के लिए भी पेड़ काटा जाता था। जिससे यहां बहुत नुकसान हुआ।
हर्षवंती कहती हैं कि मेरे पास ऐसी तस्वीरें हैं कि जिनमें भोज के पेड़ दिखते हैं, उनमें थोड़ी-थोड़ी पत्तियां हैं, फिर वे धीरे-धीरे कटते गये और लापता हो चले।हर्षवंती कहती हैं कि शुरू से ही मेरा ध्यान गौमुख पर था। गौमुख तक पर्यटन से इकोनॉमिकली तो हमको फायदा मिल रहा था, लेकिन इकोलॉजिकल संकट भी दिखाई दे रहा था। हम अपने जंगल गंवा रहे थे। उसे व्यवस्थित नहीं कर रहे थे। मेरा लक्ष्य था कि इन पेड़ों को वापस लाना है। आज वे पेड़ वापस भी आए और अब उनमें बीज लगने शुरू हो गए हैं।जलवायु परिवर्तन भी इन पेड़ों के विलुप्त होने के पीछे एक बड़ी वजह रहा।
हर्षवंती अपने अनुभवों से बताती हैं कि गौमुख लगातार पीछे खिसक रहा है। वे सन 1966 की एक तस्वीर का जिक्र करती हैं, जहां गौमुख था, वहां पेड़ नहीं थे, लेकिन आज वहां खुद-ब-खुद पेड़ उग आए हैं। यानी वहां गर्मी बढ़ रही है, इसलिए पेड़ वहां तक पहुंच गए।हिमालय और उसके ग्लेशियर को लेकर कई शोध हो चुके हैं जो भविष्य के लिहाज़ से बेहद खतरनाक हैं। हर्षवंती बिष्ट कहती हैं कि सिर्फ चिंता करके नहीं, बल्कि ठोस कार्य करके ही हम हिमालय को सुरक्षित बना सकते हैं। हमें ये तय करना होगा कि कैसे कार्बन डाई ऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड का उत्सर्जन कम किया जा सकता है। इसके लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बेहतर करना होगा। आज घर के हर सदस्य के पास उसकी अपनी गाड़ी है। सड़कों पर गाड़ियों का भार बढ़ता जा रहा है। वे ग्लोबल वॉर्मिंग को हिमालय के लिए सबसे बड़ी चुनौती मानती हैं। आइसलैंड के ओकजोकुल ग्लेशियर के उदाहरण से हमें चेताती हैं, जो अपना अस्तित्व खोने वाला दुनिया का पहला ग्लेशियर बन गया है। अब वहां बर्फ़ के कुछ टुकड़े ही बचे हैं।
हर्षवंती कहती हैं कि कहीं ऐसा हमारी ओर भी न हो, इसलिए अभी संभलना चाहिए। हम अपनी जरूरतों को नियंत्रित करें, जिससे मौसम अनुकूल रहे। उत्तराखंड के चमोली जिले की नीती-माणा घाटियों में आर्थिकी का नया जरिया बनकर उभर रहे भोजपत्र पर भगवान बदरीनाथ की आरती तथा एक पत्र लिखकर जनजातीय महिलाओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजा है। एक अधिकारी ने इसकी जानकारी दी। वहीं पीएम मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में देवभूमि उत्तराखंड का जिक्र किया। उन्होनें कहा कि जो भी पर्यटक उत्तराकंड जा रहे हैं वो यात्रा के
दौरान ज्यादा से ज्यादा लोकल उत्पाद खरीदें।
उन्होनें कहा कि आज भोजपत्र के उत्पादों को यहां आने वाले तीर्थयात्री काफी पसंद कर रहे हैं और इसे अच्छे दामों पर खरीद रहे हैं। भोजपत्र की यह प्राचीन विरासत उत्तराखंड की महिलाओं के जीवन में खुशहाली के नए-नए रंग भर रही है। उन्होनें कहा कि मुझे यह जानकर खुशी हो रही है कि भोजपत्र से नए-नए प्रोडक्ट बनाने के लिए राज्य सरकार, महिलाओं को ट्रेनिंग भी दे रही है। भोजपत्र भोज नाम के वृक्ष की छाल का नाम है, पत्ते का नहीं। इस वृक्ष की छाल ही सर्दियों में पतली- पतली परतों के रूप में निकलती हैं,जिन्हें मुख्य रूप से कागज की तरह इस्तेमाल किया जाता था। भोज वृक्ष हिमालय में 4,500 मीटर तक की ऊंचाई पर पाया जाता है। यह एक ठंडे वातावरण में उगने वाला पतझड़ी वृक्ष है, जो लगभग 20 मीटर तक ऊंचा हो सकता है। भोज को संस्कृत में भूर्ज या बहुवल्कल कहा गया है। दूसरा नाम बहुवल्कल ज्यादा सार्थक है। बहुवल्कल यानी बहुत सारे वस्त्रों/छाल वाला वृक्ष। पौराणिक काल से ‘भोजपत्र’ अभिलेखों और पांडुलिपियों को सुरक्षित और संरक्षित रखने का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है।अब वही भोजपत्र उत्तराखंड की महिलाओं की उद्यमशीलता और कौशल
को परवाज़ देने का ज़रिया बन रहा है।
आजकल भोजपत्र पर लिखे संदेश, श्लोक, आरती और त्योहारों के शुभकामना संदेश काफ़ी लोकप्रिय होते जा रहे हैं जो कि उत्तराखंड के माणा गांव की महिलाओं ने अपने विशेष कौशल से निखार कर बनाए हैं।ग़ौरतलब है कि सैलानी भी इनके अच्छे दाम देने के लिए तैयार हैं। भोजपत्र पर लिखे एक संदेश की कीमत ₹ 800 से लेकर ₹ 1,200 प्रति पीस के बीच है। सैलानियों के अलावा चार-धाम यात्रा में आने वाले श्रद्धालुओं भी भोजपत्र पर लिखे धार्मिक संदेश ख़रीदने को इच्छुक दिखाई दे रहे हैं।
भोजपत्र में लिखे संदेशों की लोकप्रियता इतनी बढ़ चुकी है कि अकेले बद्रीनाथ धाम से महिलाएँ बढी संविक्रय कर चुकी है।दरअसल में यह सिलसिला शुरू हुआ पिछले साल अक्टूबर में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बद्रीनाथ यात्रा के दौरान माणा और नीती घाटी की आदिवासी महिलाओं से मिले। मुलाक़ात के दौरान इन महिलाओं ने प्रधानमंत्री को भोजपत्र पर लिखा एक संदेश उपहार में दिया था। प्रधानमंत्री को भोज-पत्र उपहार देने के बाद मिले मीडिया कवरेज से प्रोत्साहित होकर इन महिलाओं ने भोजपत्र पर लिखे संदेशों को व्यवसायिक तौर पर विपणन करने के मौक़े तलाशने शुरू किए।
देखते ही देखते ये महिलाएँ भोजपत्र पर संदेश लिखने की कला में पारंगत हो गई और अब उनके भोजपत्र संदेश हिलांस शॉप से बेचे जा रहे हैं। वहीं कुछ महिलाएँ अपना काम खुद भी बेच रही हैं।चमोली ज़िला प्रशासन भी क्षेत्र की महिलाओं की मदद के लिए आगे आया है और इनके कौशल विकास के लिए एक विशेष सुलेख कार्यशाला का आयोजन भी किया है। कार्यशाला का उद्देश्य है कि महिलाएँ ना सिर्फ़ सुंदर हस्तलिखित सुलेखों को भोजपत्र पर लिख पाएँ बल्कि इनकी गुणवत्ता और उत्पाद को बढ़ावा देने के कौशल में भी दक्षता हासिल करें।
भोज को अंग्रेजी में हिमालयन सिल्वर बर्च और विज्ञान की भाषा में बेटूला यूटिलिस कहा जाता है। यह वृक्ष बहुउपयोगी है। इसके पत्ते छोटे और किनारे दांतेदार होते है। वृक्ष पर शहतूत जैसी नर और मादा रचनाएं लगती है, जिन्हे मंजरी कहा जाता है। छाल पतली, कागजनुमा होती है, जिस पर आड़ी धारियों के रूप में तने पर मिलने वाले वायुरंध्र बहुत ही साफ गहरे रंग में नजर आते है।यह लगभग खराब न होने वाली होती है, क्योंकि इसमें रेजिनयुक्त तेल पाया जाता है। छाल के रंग से ही इसके विभिन्न नाम लाल, सफेद, सिल्वर और पीला, बर्च पड़े है। भोज पत्र की बाहरी छाल चिकनी होती है, जबकि आम, नीम, इमली, पीपल, बरगद आदि अधिकतर वृक्षों की छाल काली भूरी, मोटी, खुरदरी और दरार युक्त होती है। यूकेलिप्टस और जाम की छाल मोटी परतों के रूप में अनियमित आकार के टुकड़ों में निकलती है। भोजपत्र की छाल कागजी परत की तरह पतले-पतले छिलकों के रूप में निकलती है। भोज के पेड़ हल्की, अच्छी पानी की निकासी वाली अम्लीय मिट्टी में अच्छी तरह पनपते है। आग या अन्य दखलंदाजी से ये बड़ी तेजी से फैलते है। भोज से कागज के अलावा इसके अच्छे दाने वाली, हल्के पीले रंग की साटिन चमक वाली लकड़ी भी मिलती है। इससे वेनीर और प्लायवुड भी बनाई जाती है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि भोजपत्र का उपयोग दमा और मिर्गी जैसे रोगों के इलाज में किया जाता है। उसकी छाल बहुत बढिया एस्ट्रिंजेट यानी कसावट लाने वाली मानी जाती है। इस कारण बहते खून और घावों को साफ करने में इसका प्रयोग होता है। उच्च हिमालय में वहां की वनस्पतियों को संरक्षित रखना आवश्यक है। सड़क बन जाने से अब उच्च हिमालय तक काफी अधिक संख्या में पर्यटक पहुंच रहे हैं। जिससे यहां का पर्यावरण प्रभावित होगा। यहां के पर्यावरण को संरक्षित रखने के लिए पौधारोपण आवश्यक है। देशभर में भोजपत्र के जंगल नाममात्र रह गए हैं। इस कारण भोजपत्र विलुप्त होती प्रजाति में शामिल है। भोजपत्र के जंगल पहाड़ी क्षेत्रों उत्तराखंड, जम्मू- कश्मीर और हिमाचल जैसे कुछ ही प्रदेशों में सिमटकर रह गए हैं।
(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )