उत्तराखंड में पहाड़ काट कर सड़कें (roads) पहुंचाना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं!
दीप चन्द्र पंत
क्या विकास के लिए पहाड़ के प्रत्येक गांव तक सड़क पहुंचाना अनिवार्य है? भूगर्भीय संवेदनशीलता, वन भूमि हस्तांतरण में समय लगने की प्रक्रिया तथा शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की सुविधा की अनुपलब्धता, जिसके कारण पलायन बढ़ा है, के कारण दूरस्थ गांवों तक पहाड़ काट कर सड़क पहुंचाना बुद्धिमानी का काम तो नहीं लगता है।
भूगर्भीय रूप से यह तो सत्य है कि महाद्वीपीय विस्थापन के फलस्वरूप अफ्रीका महाद्वीप से ऑस्ट्रेलिया के साथ ही भारतीय उपमहाद्वीप भी अलग होकर यूरेशिया महाद्वीप से टकराया है और वलित पर्वत के रूप में हिमालय का उभार हुआ है।
भूगर्भीय कालखंड की दृष्टि से यह नवीनतम भूगर्भीय घटना है। जिसका प्रमाण अभी भी हिमालयी चोटियों की उंचाई बढ़ने से मिल जाता हैह जिससे यह भी स्पष्ट होता है कि उपमहाद्वीप अभी भी उत्तर की ओर खिसक रहा है।
भूगर्भीय संवेदनशीलता की अवहेलना का परिणाम हमें जोशीमठ में भूमि में पड़ रही दरारों के रूप में दिखाई देता है। ऐसी घटनाओं को समय समय पर आ रहे भूकंप की घटनाओं के साथ प्रकृति द्वारा दी जा रही चेतावनी के रूप में देखा जा सकता है।
प्रकृति की वास्तविकता के अनुरूप विकास का स्वरूप भी बदला जा सकता है तथा लोगों को विकास भी प्रदान किया जा सकता है। प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप ही विकास की सोच लोगों के लिए हितकारी हो सकती है।
क्यों न रोड टू द बिलेज के स्थान पर विलेजेज टू द रोड की, अवधारणा भूगर्भीय रूप से स्थिर स्थलों का चयन कर विकसित की जाय? इन स्थानों पर आवश्यकता की सभी सुविधाएं विकसित की जा सकती हैं। दूरस्थ गांवों के भवनों को होमस्टे के माध्यम से इको टूरिज्म हेतु विकसित किया जा सकता है और आवश्यक ट्रैकिंग रूट और रोपवे विकसित करने की दिशा में सोचा जाना चाहिए।
(लेखक भारतीय वन सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं)