नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट (National Democratic Front) के गलत निर्णय की सजा भुगत रहा देवभूमि उत्तराखंड

नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट (National Democratic Front) के गलत निर्णय की सजा भुगत रहा देवभूमि उत्तराखंड

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तरांचल का गठन मुख्यत: एक पहाड़ी राज्य के रूप में हुआ था जिसके लिए लंबे समय से आंदोलन चल रहा था। रामपुर तिराहे पर 1994 में सरकार द्वारा उत्तराखंड के आंदोलनकारियों पर गोलीबारी के बाद तो हर पहाड़ी के लिए अलग राज्य अस्तित्व का प्रश्न बन गया था। नवंबर 2000 में उत्तर प्रदेश के दो पहाड़ी क्षेत्रों गढवाल और कुमाऊं को मिलाकर एक नया राज्य बना दिया। इसी समय मैदान के दो जिलों ऊधम सिंह नगर और हरिद्वार को भी उत्तराखंड में शामिल कर दिया गया। ऊधम सिंह नगर और हरिद्वार ऐसे मैदानी जिले हैं, जहां आज भी पहाड़ के लोग सबसे कम रहते हैं। इन दोनों जिलों को उत्तराखंड में संभवत: इसलिए मिलाया गया कि इससे उत्तराखंड की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी। हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर में खेती के साथ साथ अच्छी संख्या में औद्योगिक कल कारखाने लगे हैं। इसलिए उस समय यह विचार किया गया कि अगर इन दोनों जिलों को उत्तराखंड से जोड़ दिया जाएगा तो उत्तराखंड को खेती योग्य जमीन के साथ ही कल कारखाने भी मिल जाएंगे। इसके साथ ही क्योंकि हरिद्वार में हर बारहवें साल कुंभ मेले का आयोजन होता है तो इसका लाभ भी नवगठित उत्तराखंड को जरूर मिलेगा।

उत्तराखंड में जिस उद्देश्य से ये दो जिले शामिल किये गये थे, उसका लाभ भी उत्तराखंड को मिला। लेकिन लाभ अकेले कहां आता है? उसके साथ हानि भी तो जुड़ी होती है। उत्तराखंड के लिए यह हानि थी हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर की डेमोग्राफी। हरिद्वार और ऊधम सिंह नगरको उत्तराखंड में शामिल कर देने से प्रदेश में मुस्लिम आबादी 2011 की जनगणना के मुताबिक 13.95 प्रतिशत हो जाती है। यानी राज्य में दूसरी बड़ी जनसंख्या मुस्लिमों की ही है। अब अगर इसमें हम हरिद्वार की मुस्लिम जनसंख्या देखें तो जिले की 19 लाख की आबादी में 7 लाख के करीब मुस्लिम जनसंख्या है जो जिले की कुल जनसंख्या का लगभग 35 प्रतिशत बैठता है। इसमें हरिद्वार शहर में 15 प्रतिशत की आबादी को छोड़ दें तो रुड़की में 23.62 प्रतिशत, मंगलौर में 87.49 प्रतिशत, कलियर शरीफ में 94 प्रतिशत, लंढौरा में 75  प्रतिशत, महाबतपुर में 50.79 प्रतिशत, सैदपुरा में 49.50 प्रतिशत और नगला इमरती में 75 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। ये सारे कस्बे हरिद्वार जिले में आते हैं।इसी तरह राज्य के दूसरे मैदानी जिले ऊधम सिंह नगर में भी मुस्लिम बड़ी संख्या में पहले से रह रहे हैं।

2011 की जनगणना के मुताबिक ऊधम सिंह नगर जिले में 22.5 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। जिले की कुल11 लाख की आबादी में इनकी संख्या 3 लाख 72 हजार के आसपास है। इस तरह अगर सिर्फ इन दोनों जिलों की मुस्लिम आबादी को जोड़ा जाए तो वह 10लाख के ऊपर बैठती है जो राज्य की कुल एक करोड़ की आबादी में दस प्रतिशत हो जाती है। इन दो मैदानी जिलों के अलावा नैनीताल और देहरादून दो ऐसे पहाड़ी जिले हैं जहां की मुस्लिम जनसंख्या अच्छी खासी है। नैनीताल जिले की लगभग दस लाख की आबादी में 1.25 लाख मुस्लिम हैं जो 12.65 प्रतिशत के आसपास बैठती है। इसी तरह देहरादून जिले की 17 लाख की आबादी में मुस्लिम हिस्सेदारी लगभग 2 लाख के आसपास है। इस तरह इन चार जिलों की मुस्लिम जनसंख्या को मिला लें तो राज्य की कुल मुस्लिम आबादी का लगभग 97 से 98 प्रतिशत इन्हीं चार जिलों में निवास करता है। इसके अलावा पहाड़ों में मुस्लिम जनसंख्या सदैव से नाममात्र की ही रही है। जो है भी उनमें से अधिकांश बीते चालीस पचास सालों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से जाकर पहाड़ के अंदरूनी हिस्सों में बसे हैं। देहरादून और नैनीताल दो ऐसे पहाड़ी जिले हैं जो मैदान से पहाड़ के बीच गेटवे का काम करते हैं। इसलिए उन जिलों की मुस्लिम जनसंख्या तो उनके साथ रहती आ रही है।

पहाड़ को असली डेमोग्रेफी चैलेन्ज मिला है हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर के शामिल किये जाने के बाद। ये दोनों मैदानी जिले हैं और यहां पहले से मुस्लिमों पर सहारनपुर के देओबंदी फिरके का प्रभाव रहा है। इन दोनों जिलों के उत्तराखंड में शामिल होने से कट्टरपंथी देओबंदी इस्लाम उत्तराखंड को मुफ्त में मिल गया। 2001 से 2011 के बीच इन दो जिलों में न सिर्फ तेजी से आबादी बढ़ी है बल्कि नैनीताल और देहरादून की डेमोग्रेफी में भी बदलाव आया है। 2001 से 2011 के बीच हरिद्वार की मुस्लिम जनसंख्या में 33 प्रतिशत, देहरादून में 32.48 प्रतिशत और ऊधम सिंह नगर में 33.40 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई।

ऐसा बताया जाता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में मुस्लिम आकर इन जिलों में बसे हैं जिसके कारण इन जिलों में मुस्लिम जनसंख्या में असामान्य वृद्धि दर दिखाई दे रही है। ये सभी आंकड़े 2011 तक के हैं। ताजा जनगणना जब होगी तब और साफ तस्वीर सामने आयेगी कि बीते एक दशक में कितना बदलाव हुआ है। जो मुस्लिम पश्चिमी उत्तर प्रदेश से निकलकर उत्तराखंड की सीमा में जा रहे हैं वो सिर्फ इन्हीं चार जिलों तक नहीं रुक रहे। बिजनेस व्यापार के सिलसिले में वो पहाड़ के भीतरी हिस्सों में भी जा रहे हैं और कई किस्से अब तक ऐसे सामने आ चुके हैं जो मुस्लिम समुदाय के नौजवान द्वारा हिन्दू लड़कियों को बहला फुसलाकर भगा ले जाने से जुड़े हैं।तीर्थनगरी हरिद्वार और ऋषिकेश लव जिहाद के नर्व सेन्टर बनकर उभरे हैं जहां के खुले वातावरण में ऐसे छद्म लोगों के लिए शिकार करना आसान होता है। पहाड़ी समाज में स्त्री पुरुष के बीच वैसी दूरी नहीं है जैसा कि मैदानी इलाकों में दिखता है। यहां महिलाएं पुरुषों के साथ अधिक सहज व्यवहार करती हैं। मैदान से पहाड़ की ओर जानेवाले साजिशकर्ता उनकी इसी सरलता का लाभ उठाते हैं जिसके कारण बीते पांच सात सालों से आये दिन पहाड़ में कहीं न कहीं गुस्से का लावा सुलगता रहता है।

पुरोला कस्बे का गुस्सा उसी लावे के फूटने जैसा है। लेकिन यह टकराव यहीं खत्म हो जाएगा, ऐसी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। उत्तराखंड भी संविधान की धारा 371 के तहत संरक्षित राज्य है जहां बाहरी व्यक्ति खेती की जमीन नहीं खरीद सकता। लेकिन एक बार वह यहां का निवासी बन जाए तो उसके लिए यह प्रतिबंध खत्म हो जाता है। इसलिए समुदाय विशेष द्वारा उत्तराखंड में भी वही किया जा रहा है जो झारखण्ड में हो रहा है। सीधे सादे भोले भाले लोगों को प्रेमजाल में फंसाकर और उनसे विवाह करके वहां का स्थायी निवासी होने का प्रमाणपत्र हासिल किया जा रहा है। साजिशकर्ता के हाथ में एक बार स्थाई निवासी होने का प्रमाणपत्र मिल जाता है तब वह आगे ऐसे लोगों के लिए रास्ता खोल सकता है ताकि अधिक से अधिक लोग इस संरक्षित पहाड़ी राज्य में बस सकें।इसलिए देवभूमि उत्तराखंड ऊपर से जितना सहज दिख रहा है उतना सहज है नहीं। स्थानीय लोगों के पलायन को पश्चिमी उत्तर प्रदेश वाले समुदाय विशेष के लोग भरने का प्रयास कर रहे हैं। उनके मन में अचानक से यह पहाड़ प्रेम क्यों जागा है यह तो पता नहीं लेकिन हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर को उत्तराखंड में शामिल करके अटल सरकार ने जो ऐतिहासिक गलती की थी, आज नहीं तो कल उसका फल पूरे उत्तराखंड को भोगना पड़ेगा। छिटपुट घटनाओं से इसकी शुरुआत तो हो ही चुकी है।

उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की जो माँग थी उसके पीछे सिर्फ़ आर्थिक कारण नहीं थे, यहां सांस्कृतिक पहचान का भी सवाल था। जब उत्तराखंड राज्य आंदोलन चला था तो उसमें यह सवाल भी था कि राज्य तो हमें मिल जाएगा लेकिन हमारी ज़मीनें सुरक्षित कैसे रहेंगी, बाहर के लोग आएंगे और हमारी सारी ज़मीनें ख़रीद लेंगे। इससे वहां की डेमोग्राफ़ी बदलेगी जिसकी वजह से हमारी संस्कृति भी बगल जाएगी।उत्तराखंड में कई लोगों का कहना है कि उन्हें पिछले कुछ वर्षों में सांस्कृतिक पहचान धीरे-धीरे ख़त्म होती हुई नज़र आ रही है। (इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति उत्तरदायी नहीं है)