वापस लौट रहे हैं मोटे अनाज
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
देश में हरित क्रांति का इतिहास स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। हरित क्रांति की सफलता से देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हुआ। मसलन, सरकार ने हरित क्रांति के जरिये देश में गेहूं और चावल का उत्पादन बढ़ाने की योजना बनाई थी। जिसकी सफलता से देश गेहूं और चावल के उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बना। इसकी सफलता की मौजूदा मजमून ये भी है कि देश के किसान भारत की आबादी के लिए तो गेहूं-चावल का उत्पादन तो कर ही रहे हैं। साथ ही देश के किसानों की ये मेहनत दुनिया के कई देशों के नागरिकों की भी भूख मिटा रही है।
हरित क्रांति की विशेषता में ये इसके गुण हैं। तो वहीं इसके दोषों पर चर्चा होती है, तो कहा जाता है कि हरित क्रांति की सफलता से देश में मोटे अनाजों का उत्पादन प्रभावित हुआ है। लेकिन, ये धारणा अधूरी है अगर इसे सटीक शब्दों में कहें तो कहा जा सकता है कि हरित क्रांति का फायदा मोटे अनाजों को भी मिला। हरित क्रांति के बाद बेशक देश में मोटे अनाजों की खेती रकबा कम हुआ। लेकिन, उत्पादन में बढ़ोतरी हुई।
आइये इस पूरी पहेली को मोटे अनाजों के हरित क्रांति से पहले और बाद वाले सफर से समझने की कोशिश करते हैं।हरित क्रांति से पहले देश में मोटे अनाजों की खेती अधिक थी। केंद्रीय कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार हरित क्रांति से पहले यानी वर्ष 1965-70 से पहले देश में कुल 37 हजार हेक्टेयर में मोटे अनाजों की खेती होती थी। जबकि उत्पादन 17 हजार टन था तो वहीं एक हेक्टेयर में 15 हजार KG का उत्पादन था। अगर कहा जाए तो हरित क्रांति से पहले देश में कुल उत्पादित होने वाले अनाज का 20फीसदी उत्पादन मोटे अनाजों का था जो एक बड़ी मात्रा थी, लेकिन, इसके बाद तस्वीर बिलकुल उलट हो गई है. हरित क्रांति से पहले देश में मोटे अनाजों की खेती अधिक थी।
केंद्रीय कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार हरित क्रांति से पहले यानी वर्ष 1965-70 से पहले देश में कुल 37 हजार हेक्टेयर में मोटे अनाजों की खेती होती थी। जबकि उत्पादन 17 हजार टन था तो वहीं एक हेक्टेयर में 15 हजार KG का उत्पादन था। अगर कहा जाए तो हरित क्रांति से पहले देश में कुल उत्पादित होने वाले अनाज का २० फीसदी उत्पादन मोटे अनाजों का था जो एक बड़ी मात्रा थी,लेकिन, इसके बाद तस्वीर बिलकुल उलट हो गई है। संयुक्त राष्ट्र ने 2023 को मिलेट अर्थात मोटा अनाज वर्ष घोषित किया है। बताते चलें कि इसका प्रस्ताव भारत ने ही रखा था और 72 देशों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया था।
मोटे अनाजों के बारे में कहा जाता है कि इनकी फसलें प्रतिकूल मौसम को झेल सकती हैं। इन्हें ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती है। भारत के बारे में मशहूर है कि यहां हजारों साल से ये अनाज हमारे भोजन का अनिवार्य हिस्सा रहे हैं। हमारी पीढ़ी, जो पांच-छह दशक पहले बड़ी हो रही थी, में से बहुतों ने बचपन में गेहूं, ज्वार, बाजरा, जौ, मक्का आदि की चूल्हे पर सिंकी स्वादिष्ट रोटियां खूब खाई हैं।बाजरे की खिचड़ी, रोटी और घी मिलाकर बनाए लड्डू, समा के चावल भी भोजन का हिस्सा रहे हैं। तब तो गेहूं की रोटी में भी चने का आटा मिलाकर खाया जाता था, जिसे मिस्सा आटा कहते थे। अकेले गेहूं की रोटी खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता था।
सर्दियों में शायद ही कोई दिन होता था, जब मक्का या बाजरा की रोटी न बने, लेकिन गेहूं, चावल की पैदावार में क्रांति और इन्हें खाने वालों की आर्थिक हैसियत को ऊंची बताने के कारण मोटे अनाज हमारी थालियों से लगभग गायब हो गए। अरसे बाद जब ये सुपरफूड के रूप में विदेशों से लौटे और स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहने वाले धनाढ्य वर्ग की थाली की शोभा बढ़ाने लगे, तो फिर इनके प्रति दिलचस्पी बढ़ी। यह अच्छा ही हुआ। फिलहाल सरकार भी इनके उत्पादन के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर रही है। खान-पान में इन अनाजों को शामिल करने की बात लगातार की जा रही है। मालूम हो, लम्बे समय से मोटे अनाजों की खेती को मुख्य धारा में लाने के लिए कोशिश की जा रही है।
सवाल अहम यह है कि भारत सहित दुनिया के देश मोटे अनाज की खेती पर जोर क्यों दे रही है? जवाब स्पष्ट है, तेजी से हो रहा जलवायु परिवर्तन और बढ़ती जनसंख्या चिंता की बात है, ऐसे में फसलों के उत्पादन में कमी आएगी और खाद्य पदार्थों की मांग में बढ़ोतरी जिसके कारण सभी के लिए खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करना बड़ी चुनौती हो सकती है। जलवायु परिवर्तन के कारण भविष्य में सूखा और अकाल पडऩे जैसी घटनाएं सामान्य हो जाएंगी। मोटे अनाजों की खेती करके अकाल और सूखे की स्थिति से आसानी से निपटा जा सकता है। भारत दुनिया के उन सबसे बड़े देशों में शामिल है जहां सबसे ज्यादा मोटे अनाज की पैदावार होती है। भारत दुनिया के कई देशों को मोटे अनाज का निर्यात करता है। इनमें संयुक्त अरब अमीरात, नेपाल, सऊदी अरब, लीबिया, ओमान, मिस्र, ट्यूनीशिया, यमन, ब्रिटेन तथा अमेरिका शामिल हैं।
मोटे अनाजों में भारत सबसे ज्यादा बाजरा, रागी, कनेरी, ज्वार और कुट्टू को एक्सपोर्ट करता है। वैश्विक उत्पादन में लगभग 41 प्रतिशत की अनुमानित हिस्सेदारी के साथ भारत दुनिया में बाजरा के अग्रणी उत्पादकों में शुमार है। इसके बावजूद मोटे अनाजों से बने उत्पाद- बेबीफूड, बेकरी, ब्रेकफास्ट, रेडी टू ईट फूड, रेडी टू कुक, रेडी टू सर्व, वेवरीज और पशु आहार बेचकर चीन दुनिया में मोटी कमाई कर रहा है। यह तब है जब वह दुनिया का मात्र 9 फीसदी ही मोटा अनाज पैदा करता है। खैर, केंद्र सरकार ने बाजरा सहित संभावित उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देने तथा पोषक अनाजों की आपूर्ति श्रृंखला की बाधाओं को दूर करने के लिए पोषक अनाज निर्यात संवर्धन फोरम का गठन किया है।
मोटे अनाज की कैटेगरी में ज्वार, बाजरा, रागी (मडुआ), जौ, कोदो, सामा, बाजरा, सांवा, कुटकी, कांगनी और चीना जैसे अनाज आते हैं। इन अनाजों के सेवन से मोटापा, दिल की बीमारियां, टाइप-2 डायबिटीज और कैंसर का खतरा घटाता है। इनमें कई गुना अधिक पोषक तत्व पाए जाते हैं। यही वजह है कि मोटे अनाज को सुपर फूड भी कहा जाता है। मोटे अनाज में सिर्फ फाइबर ही नहीं, बल्कि विटामिन-बी, फोलेट,जिंक ,आयरन, मैग्नीशियम, आयरन और कई तरह के एंटीऑक्सीडेंट्स पाए जाते हैं।मोटे अनाज जहां सेहत के लिए रामबाण हैं तो दूसरी तरफ खेती करने वाले किसानों के लिए भी फायदेमंद हैं। मोटे अनाजों की खेती करके जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा संकट, भू-जल हृास, स्वास्थ्य और खाद्यान्न संकट जैसी समस्याओं को काबू में किया जा सकता है।
हम उम्मीद कर सकते हैं कि भारत 2023 में जी-20 की अध्यक्षता करते हुए अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष 2023 के उद्देश्यों और लक्ष्यों के मद्देनजर देश और दुनिया में मोटे अनाजों के लिए जागरूकता पैदा करने में सफल होगा और इससे मोटे अनाज का वैश्विक उत्पादन बढ़ेगा, मोटे अनाज का वैश्विक उपभोग बढ़ेगा। साथ ही, कुशल प्रसंस्करण एवं फसल चक्र का बेहतर उपयोग सुनिश्चित होगा। भारत द्वारा वर्ष 2023 में मोटा अनाज वर्ष के तहत मोटे अनाजों के प्रति जागरूकता की प्रभावी रणनीति से एक बार फिर मोटे अनाज को देश के हर व्यक्ति की थाली में अधिक जगह मिलने लगेगी। देश- विदेश में एक बार फिर मोटे अनाज लौट रहे हैं। असल में मोटे अनाज कैल्शियम, आयरन और फाइबर से भरपूर होते हैं और बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक पोषक तत्वों को मजबूत करने में मदद करते हैं।वहीं ये जलवायु परिवर्तन संकट से निपटने में भी सक्षम हैं।
मोटे अनाज कभी गरीबी के प्रतीक माने जाते थे, वे अब अमीरों की पसंद बन गए हैं। हम एक ऐसे दौर में रह रहे हैं, जहां जीवन शैली में बदलाव के कारण कई बीमारियां बढ़ रही हैं। इन बीमारियों में मोटे अनाज फायदेमंद हैं। इससे मोटे अनाज का बाजार लगातार बढ़ रहा है। दुनिया में तमाम लोगों को ग्लूटेन से एलर्जी होती है। मोटे अनाज ग्लूटेन मुक्त होते हैं। इसलिए इनके निर्यात की संभावनाएं भी बढ़िया हैं।न केवल सेहत , बल्कि पर्यावरण की दृष्टि से भी मोटे अनाज किसी वरदान से कम नहीं। इनकी पैदावार के लिए पानी की जरूरत कम पड़ती है। खाद्य व पोषण सुरक्षा देने के साथ-साथ ये पशु चारा भी मुहैया कराते हैं। इनकी फसलें मौसमी उतार- चढ़ाव भी आसानी से झेल लेती हैं। इसका यही अर्थ है कि पानी की कमी और बढ़ते तापमान के कारण खाद्यान् उत्पादन पर मंडराते संकट के दौर में मोटे अनाज उम्मीद की किरण जगाते हैं,क्योंकि इनकी खेती अधिकतर वर्षाधीन इलाकों में बिना उर्वरक-कीटनाशक के होती है।
पोषक तत्वों की दृष्टि से ये गुणों की खान हैं। प्रोटीन व फाइबर की भरपूर मौजूदगी के चलते मोटे अनाज डाइबिटीज, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप का खतरा कम करते हैं। इनमें खनिज तत्व भी प्रचुरता में होते हैं, जिससे कुपोषण की समस्या दूर होती है। मोटे अनाजों के वितरण से न सिर्फ खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित होगी, बल्कि गेहूं-चावल के पहाड़ से भी मुक्ति मिल जाएगी। इससे विविधतापूर्ण खेती को बढ़ावा मिलेगा, जिससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ेगी। साथ ही रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के इस्तेमाल में कमी आएगी। इनकी खेती को बढ़ावा देना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि सिंचित क्षेत्र की पैदावार में बढ़ोतरी थम गई है।
देश में उपलब्ध भूजल का 80 प्रतिशत खेती में इस्तेमाल होता है। मोटे अनाजों की खेती से बड़ी मात्रा में पानी बचाया जा सकता है। यदि भारत को पोषक खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांग से निपटना है तो वर्षाधीन इलाकों में दूसरी हरित क्रांति जरूरी है। यह तभी संभव है जब कृषि शोध और मूल्य नीति मोटे अनाजों को केंद्र में रखकर बने। मोटे अनाजों की खेती मुख्य रूप से छोटे एवं सीमांत किसान करते हैं, तो उन्हें बढ़ावा देने से छोटी जोतें भी लाभकारी बन जाएंगी।मोदी सरकार गेहूं- धान की एकफसली खेती के कुचक्र से निकालकर विविध फसलों की खेती को बढ़ावा दे रही है। इसके लिए सरकार तीन नए कृषि कानून लाई थी, लेकिन चंद राज्यों में सक्रिय बिचौलियों- आढ़तियों की ताकतवर लाबी ने ऐसा नहीं होने दिया। इसके बावजूद सरकार मोटे अनाजों की खेती को बढ़ावा दे रही है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत पोषक अनाज उप-मिशन के माध्यम से मोटे अनाज के उत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है।सरकार के कई संस्थान मोटे अनाजों के प्रसंस्करण का प्रशिक्षण दे रहे हैं। राज्य सरकारों को भी केंद्र की इस पहल को सफल बनाने के लिए आगे आना होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार की मोटे अनाजों को बढ़ावा देने की नीति खेती के परिदृश्य को बदलने की क्षमता रखती है।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )