चिंता: उत्तराखंड में करीब एक लाख जल स्रोत सूखने के कगार पर!!
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत का एक खूबसूरत राज्य उत्तराखंड जिसे गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ जैसे तीर्थस्थलों के लिए प्रसिद्धी मिली है। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य लोगों का मन मोह लेते हैं। इस राज्य को देवभूमि के नाम से जाना जाता है। धार्मिक मान्यताओं के साथ इस राज्य की एक और बड़ी भूमिका है। उत्तराखंड राज्य देश की एक बड़ी आबादी की प्यास भी बुझाता है। लेकिन वर्तमान समय में ये पहाड़ी राज्य भीषण जल संकट से गुजर रहा है। अमूमन ये माना जाता है कि जिस राज्य से गंगा जैसी विशाल नदी बहती हो वहां भला जल की क्या कमी हो सकती है, लेकिन सरकारी आंकड़े जो हकीकत बयां कर रहे हैं, वो बेहद चौंकाने वाले तो हैं ही साथ ही भयावह भी हैं। दरअसल, जहां दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग का असर देखा जा रहा है। उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं है।
उत्तराखंड के लिए एक पुरानी कहावत है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी कभी भी यहां के काम नहीं आई. एक दो अपवादों को छोड़ दें तो यह काफी हद तक सही भी है। जो उत्तराखंड देश की एक बड़ी आबादी की प्यास बुझाता है, अब वहीं के लोगों के हलक सूख रहे हैं। पहाड़ों से निकलने वाले जल स्रोत छोटी-छोटी नदियां अब गायब हो रही हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार और सिस्टम को इसकी जानकारी नहीं है. 6-8 महीने में एक बैठक करके हमारे नीति निर्धारक इस पर चर्चा करते हैं और अगले प्लान के लिए बजट करते हैं, लेकिन हालात यह है कि नीति आयोग की रिपोर्ट यह कह रही है कि उत्तराखंड में लगातार जल स्रोत सूख रहे हैं। जानकार तो यह भी मानते हैं कि पलायन का एक बड़ा कारण नौले-धारे और जल स्रोतों का सूखना भी है। इन सब के पीछे वजह जो भी हो, लेकिन इन हालातों की बड़ी वजह इंसान ही हैं। कुछ समय पहले तक जल स्रोतों को गांव के लोग देवता की तरह पूजते थे।
साल में कई बार गांव इकट्ठा होकर इन नौले धारों और जल स्रोतों को संजोकर रखते थे। लेकिन आलम यह है कि धीरे-धीरे यह जल स्रोत आबादी वाले इलाकों में सूखने लगे हैं. जल स्रोत प्रबंधन कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि, मौजूदा समय में उत्तराखंड में 4000 ऐसे गांव हैं जो जल संकट से जूझ रहे हैं।
रिपोर्ट यह भी बताती है कि 510 ऐसे जल स्रोत हैं, जो अब सूखने की कगार पर आ गए हैं। सबसे ज्यादा असर अल्मोड़ा जनपद पर पड़ा है। यहां पर 300 से अधिक जल स्रोत सूख गए हैं। यहां तक कि उत्तराखंड में प्राकृतिक जल स्रोतों के जलस्तर में 60 फीसदी की कमी आई है। उत्तराखंड में 12000 से अधिक ग्लेशियर और 8 नदियां निकलती हैं। बावजूद इसके उत्तराखंड में मौजूदा समय में 461 जल स्रोत ऐसे हैं, जिनमें 76% से अधिक पानी अब बचा ही नहीं यानी पूरी तरह से सूख चुका है।इसके साथ ही प्रदेश में 1290 जल स्रोत ऐसे हैं, जिनमें 51-75 प्रतिशत पानी सूख चुका है।आंकड़े बताते हैं कि राज्य में 2873 जल स्रोत ऐसे हैं, जिनमें 50 प्रतिशत तक पानी कम हो चुका है और ये निरंतर कम हो रहा है. राज्य में सबसे अधिक जल संकट, टिहरी, पिथौरागढ़, चमोली, अल्मोड़ा, और बागेश्वर जिले में है।ऐसा नहीं है कि सिर्फ प्राकृतिक जल स्रोत कम हो रहे हैं।
केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय की मानें तो राज्य में 725 ऐसे जलाशय हैं, जो पूरी तरह से सूख चुके हैं। उत्तराखंड में 3096 जलाशय हैं, जिसमें 2970 जलाशय ग्रामीण क्षेत्र में है, जबकि 126 जलाशय शहरी क्षेत्र में हैं। रिपोर्ट कहती है कि 2371 जलाशय में हाल ही में पानी पाया गया था, जबकि 725 जल से पूरी तरह से सूख चुके हैं, जिसकी वजह मंत्रालय ने प्रदूषण फैक्ट्री और तालाबों के ऊपर बस्तियों को बताया था। उत्तराखंड के पहाड़ों में प्राकृतिक जल स्रोत को सूखते देख लोग भी बेहद चिंतित हैं। कभी टिहरी बांध के विरोध में खड़े हुए स्वर्गीय सुंदरलाल बहुगुणा के बेटे कहते हैं कि हमने इन जल स्रोतों को भगवान की तरह पूजा है। लेकिन आज पहाड़ों में हो रहा अनियंत्रित विकास और सड़कों का जाल जल स्रोतों के सूखने की प्रमुख वजह हैं। कहा कि युवा पीढ़ी भी जल स्रोतों और झरनों को फोटो खिंचवाने तक सीमित रख रही है। उन्होंने कहा कि संरक्षण के लिए आवाज तो उठ रही है, लेकिन धरातल पर नहीं उतर पा रही है।
उत्तराखंड सरकार ने जल स्रोतों को बचाने के लिए 2023 अक्टूबर महीने में एक एजेंसी का गठन किया था। स्प्रिंग एंड रिवर रिजुविनेशन अथॉरिटी यानी (सारा) एजेंसी भी बनाई गई थी। इसकी अंतिम बैठक नवंबर 2023 में उसे वक्त के मुख्य सचिव ने ली थी, जिसमें यह निर्णय लिया गया था कि उत्तराखंड के जल स्रोतों को पूर्ण जीवित करने के लिए वन पंचायत को जोड़ा जाएगा। सिंचाई एवं जलागम मंत्री कहते हैं कि सरकार लगातार इस दिशा में काम कर रही है। इसके लिए पहाड़ों की पंचायत को भी जोड़ा है। मंत्री मानते हैं कि बीते कुछ सालों में उत्तराखंड के जल स्रोतों को सूखने में इजाफा हुआ है, लेकिन वो कहते हैं कि इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ा जा रहा है। पूर्व में टिहरी के तीन से चार गांव में कई वर्षों से चल रहे जल स्रोतों को दोबारा से पुनर्जीवित किया गया है।
राष्ट्रीय हिमालय अध्ययन मिशन प्रोजेक्ट के तहत साल 2019 से यह प्रयास चल रहा था जो हाल ही में पूरा हुआ है। आने वाले समय में इसके परिणाम बेहद सुखद होंगे। लेकिन यह बात भी सही है कि केवल सरकार ही नहीं लोगों को भीइस दिशा में आगे कदम बढ़ाना होगा। उत्तराखंड में जल स्रोत सूखने के बाद पहाड़ी जिलों के अलावा मैदानी जिलों में भी परेशानियां बढ़ी हैं। देहरादून के विभिन्न क्षेत्रों में टैंकर के जरिए पानी पहुंचाया जा रहा है।देहरादून जिले में 142 जल स्रोत मौजूद हैं, जिनमें 46% ऐसे हैं, जिनका पानी 76% से ज्यादा सूख चुका है। इसी तरह पौड़ी में 645 में से 161 जल स्रोत सूख गए हैं। चमोली में 436 में से 36 सूख चुके हैं. उधर, रुद्रप्रयाग में 313 में से 5 जल स्रोत अब गायब हो गए हैं। नई टिहरी में 627 में से 77 जल स्रोत का पानी सूख चुके हैं। उत्तरकाशी में 415 में से 63 जल स्रोत सूख गए हैं। वहीं, नैनीताल में 459 में से 36, अल्मोड़ा में 570 में से 13, पिथौरागढ़ में 542 में से 25 जबकि, चंपावत में 277 और बागेश्वर में 198 में से एक-एक जल स्रोत 76% से ज्यादा सूख चुके हैं।
ये आंकड़े बताते हैं कि आने वाला समय भयानक पेयजल संकट से गुजरेगा उत्तराखंड के पास एशिया का “वाटर टावर” होने के बावजूद यहां पेयजल संकट बरकरार है। आलम ये है कि राज्य में 62% प्राकृतिक स्रोत ऐसे हैं, जो करीब 50% तक सूख चुके हैं। वैसे पेयजल संकट को लेकर यह स्थिति केवल उत्तराखंड की नहीं है, देश में खासकर उत्तर भारत के ज्यादा राज्य ऐसे हैं, जहां पानी का संकट एक बड़ी समस्या बन गया है. विभिन्न राज्यों में ग्राउंड वाटर भी बेहद तेजी से कम हो रहा है। प्राकृतिक जल स्रोत भी सूखने की कगार पर हैं।उनसे भी उस मात्रा में पानी नहीं आ रहा जैसे पहले आता था किसी समय उत्तराखण्ड की यह जल संचयन की यह परम्परा सांस्कृतिक दृष्टि से समाज को समृद्ध और जीवंत बनाये रखती थी। नौल की देखरेख, उनकी सफाई व जीर्णोद्धार की जिम्मेदारी में सामूहिक सहभागिता का भाव समाया रहता था।
उत्तराखण्ड के गांवों से बढ़ते पलायन, पर्यावरण असन्तुलन तथा घर-घर तक सरकारी पाइप लाइन के जरिए जलापूर्ति की सुविधा हो जाने के कारण आज यहां के परम्परागत ’नौल’ उपेक्षित व बदहाल स्थिति में पहुंच गए हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इस शानदार परम्परा को पुर्नजीवित करने के लिए के प्रयास हों। ऐसी दीर्घकालिक योजनाएं लागू हों जिनमें स्थानीय ग्रामीण लोगों की बराबर भागीदारी रहे। नौल में जल प्रवाह की आपूर्ति सदाबहार रहे इसके लिए जलागम क्षेत्रों में चाल-खाल बनाने और चौडी-पत्ती प्रजाति के पेड़ों का रोपण के कार्य महत्वपूर्ण हो सकते हैं इससे पर्यावरण के साथ-साथ यह पुरातन जल परम्परा भी समृद्ध हो सकेगी।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)