उत्तराखंड का प्रमुख मुखौटा नृत्य है हिलजात्रा
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
हिलजात्रा का शाब्दिक अर्थ कीचड़ का खेल है। हिल का शाब्दिक अर्थ दलदल यानि पानी वाली दलदली भूमि और जात्रा का अर्थ खेल, तमाशा या यात्रा है। जिसका सीधा तात्पर्य पानी वाले दलदली भूमि में की जाने वाली खेती और खेल का मंचन है।यह उत्सव वर्षा ऋतु की समाप्ति और शरद के आगमन से कुछ पूर्व मनाया जाता है। हिमालयी राज्यों में सिक्किम, लेह लद्दाख, अरुणाचल प्रदेश, नेपाल, तिब्बत के अलावा चीन जापान और भूटान में भी मुखौटा नृत्य की परंपरा है। नेपाल में हिलजात्रा को इंदर जात्रा के नाम से जाना जाता है। पिथौरागढ़ जिले में सातू आंठू पर्व की समाप्ति के बाद इसे मनाया जाता है। इस पर्व तो माता सती का पर्व भी माना जाता है। जिसे कृषि पर्व के रूप में जाना जाता है।
पिथौरागढ़ के सोर घाटी में पूर्व में पूरा जनजीवन कृषि पर केंद्रित था। उसी परिवेश के क्रियाकलापों का कला के रूप में प्रदर्शन हिलजात्रा में किया जाता है। यह उत्तराखंड की एक विशिष्ट लोक नाट्य शैली है। मुखौटों के साथ होने वाले इस उत्सव में लोक जीवन के साथ आस्था और हास्य भी है। मुख्य पात्रों की भूमिका पुरुष निभाते ही निभाते हैं। लखिया भूत इस उत्सव का मुख्य पात्र है। जो भगवान शिव का 12वां गण है। उसके मैदान में आते ही पूरा उत्सव आस्था में बदल जाता है। लखिया धन, धान्य और सुख समृद्धि का आर्शीवाद देता है।
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की सोर घाटी का प्रसिद्ध हिलजात्रा उत्सव कुमौड़ के हिलजात्रा मैदान में होगा।कृषि पर आधारित इस उत्सव को देखने के लिए हर साल हजारों की संख्या में लोग जुटते हैं। इस ऐतिहासिक मैदान में लखिया के अलावा गल्या बैलों की जोड़ी, एकल्वा बैल, हलिया, किसान, पुतारियां बने पात्र प्राचीन परंपरा और संस्कृति को बेहद खूबसूरत ढंग से प्रस्तुत करते हैं। मुखौटा नृत्य पर आधारित हिलजात्रा बनी सोरघाटी की पहचान आज से 36 वर्ष पहले सोरघाटी (पिथौरागढ़) के लोक परंपरा की संवाहक हिलजात्रा का दिल्ली दूरदर्शन से प्रसारण हुआ तो इस लोक उत्सव को देशभर में प्रसिद्धि मिली।
खास बात यह है कि इस लोकनाट्य परंपरा को बड़े स्तर के सांस्कृतिक आयोजनों में पांच बार पहला स्थान मिल चुका है। मुखौटा नृत्य पर आधारित यह लोकोत्सव सोरघाटी की पहचान बनता जा रहा है। हिलजात्रा को राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि देने का श्रेय विख्यात रंगकर्मी स्व. मोहन उप्रेती को जाता है।1983 में दूरदर्शन से जब इस लोक परंपरा का प्रसारण हुआ तो पर्वतीय कलाकार संघ ने दिल्ली में इसका मंचन किया। उस मंचन में अल्मोड़ा के रंगकर्मी स्व. बृजेंद्र लाल शाह और प्रसिद्ध रंगकर्मी पूर्व विधायक स्वर्गीय हीरा सिंह बोरा ने भी पात्र की भूमिका निभाई थी। 1996 में रामनगर में हुए पर्वतीय सांस्कृतिक महोत्सव में हिलजात्रा को पहला स्थान मिला। उसके बाद जमशेदपुर, सूरजकुंड, टिहरी,दिल्ली में हिलजात्रा का मंचन हुआ और हर बार हिलजात्रा को पहला स्थान मिला।पिथौरागढ़ का नवोदय पर्वतीय कला केंद्र देश के विभिन्न शहरों में 21 बार हिलजात्रा का मंचन कर चुका है। 1999 में दिल्ली में हिलजात्रा का मंचन किया गया। तब कुमौड़ गांव के यशवंत महर, कुंडल महर, जीवन महर और अर्जुन सिंह महर ने पात्रों की जीवंत भूमिका निभाई थी।
राज्य आंदोलनकारी गोपू महर कहते हैं कि समय में आए बदलाव के बावजूद हिलजात्रा का वही प्राचीन स्वरूप कायम है।हिलजात्रा लोकनाट्य परंपरा है। कृषि से जुड़े इस उत्सव में एक ओर मध्य हिमालयी क्षेत्र के मुखौटा नृत्य का प्रदर्शन होता है तो दूसरी ओर देश के अन्य हिस्सों में प्रचलित जात्रा परंपरा का भी समावेश है। पहले जब लोगों के पास मनोरंजन के अन्य साधन नहीं थे, तब ऐसे लोकोत्सवों में जन भागीदारी बहुत ज्यादा होती थी। जानकार बताते हैं कि कुमौड़ और पिथौरागढ़ जिले के तमाम गांवों में यह परंपरा दो सौ साल से चली आ रही है। नेपाल और उत्तराखंड की सीमा ही नहीं, बल्कि यहां के लोगों के दिल भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। नेपाल भले ही एक अलग देश हो, लेकिन आज भी एक छोटा नेपाल उत्तराखंड में बसता है।
पिथौरागढ़ जिले में हर साल ये छोटा नेपाल देखने को मिलता है। पिछले साल तक हिलजात्रा के मुख्य पात्र लखिया का आशीर्वाद लेने के लिए हजारों की संख्या में लोग पहुंचते थे। इस साल कोरोना के भय से हिलजात्रा सांकेतिक रूप से मनाई गई।जब हिलजात्रा का आयोजन सांकेतिक रूप में हुआ। कोरोना के कारण लोगों में काफी मायूसी देखी गई।
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत है )