उत्तराखंड की बिच्छू घास में छिपा है सेहत का खजाना
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में स्थानीय लोग बिच्छू बूटी को बिच्छू घास, कुंगश, कंडाली, सिसूंन,सियून भाभर आदि नामों से पुकारते हैं। बिच्छू बूटी को अंग्रेजी भाषा में नेटल कहा जाता है। इसका बॉटनिकल नाम अर्टिका डाईओका है। बिच्छू बूटी की पत्तियों पर छोटे-छोटे बालों जैसे काँटे होते हैं। पत्तियों के हाथ या शरीर के किसी अन्य भाग में लगते ही तीव्र झनझना हट शुरू हो जाती है। इसका असर बिच्छू के डंक के समान होता है। इसी लिए अंग्रेजी में इसे स्टिंगिंगगिं नेटल भी कहते हैं। इसके काँटो में मौजूद हिस्टामिन की वज़ह से तीव्र ज़लन होती है।औषधीय गुणों के कारण बिच्छू बूटी का विशेष महत्व है।
बिच्छू बूटी का प्रयोग पित्त दोष, शरीर के किसी भाग में मोच, जकड़न और मलेरिया के साथ – साथ इसके बीजों को पेट साफ़ करने वाली दवा के रूप में भी किया जाता है। इसमें काफी मात्रा में आयरन होता है।बिच्छू बूटी में विटामिन ए, सी ,आयरन, पोटैशियम, मैगनीज़ तथा कैल्शियम प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इसीलिए इसको प्राकृतिक मल्टी विटामिन का नाम भी दिया गया है। कंडाली में लौह तत्व अत्यधिक होता है खून की कमी पूरी करती है। इसके अलावा फोरमिक ऐसिड, एसटिल को लाइट, विटामिन ए भी कंडाली में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इसमें चंडी तत्व भी पाया जाता है गैस नाशक है आसानी से हज्म होती है कंडाली का खानपान पीलिया, पांडू, उदार रोग, खांसी , जुकाम, बलगम,गठिया
रोग, चर्बी कम करने में सहायक है।
देवभूमि उत्तराखंड केवल प्राकृतिक सौन्दर्यता और पर्यटन स्थलों के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है। यह अपनी परम्परिक संस्कृति और रीती रिवाजों के लिए भी पूरे देश – विदेश में मशहूर है। यहाँ के रीती रिवाज और रस्में सभी के मन बहला देती है। इसलिए आज कल हर कोई उत्तराखंड की संस्कृति को अपनाना चाहता है। कंडाली महोत्सव भारत के उत्तराखंड राज्य का मुख्या त्यौहारों में से एक है जो की पिथौरागढ़ जिले में बड़ी धूम से मनाया जाता है। महिलाओं और पुरषों द्वारा मनाया जाने वाला यह त्यौहार उत्तराखंड संस्कृति का एक अंग है। इसमें सभी लोग उत्तराखंड की पारम्परिक वस्त्रों को धारण करके बड़े ही हर्ष और उल्लास के साथ मानते है। किदवंतियों के अनुसार यह पर्व हर 12 साल में एक बार मनाया जाता है।
बताया जाता है यह पर्व कंडाली पौधे ( एक विशेष प्रकार का फूल पौधा जो 12 वर्ष में एक बार खिलता है ) के खिलने के दौरान मनाया जाता है। पौधें के 12 वर्ष बाद खिलने की ख़ुशी में कंडाली महोत्सव का आयोजन किया जाता है। कंडाली पुष्प पर हर साल एक फूल खिलता है और 12 वर्षों में 12 फूल खिल जाने के समय को बड़ा ही महत्व दिया जाता है काडंली महापर्व का स्थानीय लोगों के जीवन में बड़ा ही महत्व माना गया है। कहा जाता है की इस पौधे का नाश करने के साथ साथ उन्हें यह हौसला मिलता है की वह हर युद्ध को जीत सकते है।आज के दिन वे लोग अपने देवी देवताओं की पूजा करते है और दुश्मनों पर विजय प्राप्त करने की कामना करते है। बड़े ही हर्ष और उल्लास के साथ लोगों द्वारा प्रसिद्ध त्यौहार कंडाली महोत्सव का आयोजन किया जाता है और विजयी नृत्य के साथ उत्सव का समापन एक विशेष दावत के साथ किया जाता है। जिसमे विभिन्न प्रकार के स्थानीय व्यंजनों को परोसा जाता है।
पिछले साल में बिच्छू घास से बनी 500 किलो चाय देश भर के बड़े शहरों में बेच चुकी है। अभी सालाना उत्पादन करीब चार क्विंटल है। इसका फ्लेवर खीरे की तरह होता है। बिच्छू घास की चाय के 50 ग्राम के एक पैकेट की कीमत 110 रुपए है और इसकी काफी मांग है। उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में पायी जाने वाली एक ऐसी घास है, जिसे छूने से लोग डरते हैं। वहीं , दूसरी ओर यह स्वाद से लेकर दवा और आय का भी स्रोत है। बिच्छू घास की। इससे स्थानी भाषा में कंडाली के नाम से जाना जाता है। अगर ये घास गलती से छू जाए तो उस जगह झनझनाहट शुरू हो जाती है, लेकिन यह घास कई गुणों को समेटे हुए हैं। इससे बने साग का स्वाद लाजवाब है, वहीं इस घास से बनी चप्पल, कंबल, जैकेट से लोग अपनी आय भी बढ़ रहे जंगलों में उगने वाली बिच्छू घास यानी हिमालयन नेटल (स्थानीय भाषा में कंडाली ) से उत्तराखंड में जैकेट, शॉल, स्टॉल , स्कॉर्फ व बैग तैयार किए जा रहे हैं।
चमोली व उत्तरकाशी जिले में कई समूह बिच्छू घास के तने से रेशा (फाइबर) निकाल कर विभिन्न प्रकार के उत्पाद बना रहे हैं। अमेरिका , नीदरलैंड, न्यूजीलैंड, रूस आदि देशों को निर्यात के लिए नमूने भेजे गए हैं। इसके साथ ही जयपुर, अहमदाबाद, कोलकाता आदि राज्यों से इसकी भारी मांग आ रही है। चमोली जिले के मंगरौली गांव में रूरल इंडिया क्राफ्ट संस्था और उत्तरकाशी जिले के भीमतल्ला में जय नंदा उत्थान समिति हस्तशिल्प उत्पाद बनाने का काम करती हैं। इन संस्थाओं ने बिच्छू घास के रेशे से हाफ जैकेट, शॉल, बैग, स्टॉल बनाए हैं।
पहाड़ी क्षेत्रों में पाया जाने वाला हिमालयन नेट्टल रोजगार देने और पलायन रोकने में सहायक होने के साथ साथ लोगों की आर्थिक स्थिति को सुधारने में सहायक सिद्ध होगा।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )