उत्तराखंड : 23 सालों में भी विकास के पंख, बड़ी चुनौतियां अभी भी बरकरार !
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
23 साल के उत्तराखंड को लगे विकास के पंख, बड़ी चुनौतियां अभी भी बरकरार उत्तर प्रदेश से अलग होकर साल 2000 में एक पहाड़ी राज्य उत्तराखंड बना। उत्तराखंड अपनी भौगोलिक परिस्थितियों और सीमित संसाधनों में सिमटा हुआ है, लेकिन इसके बावजूद उत्तराखंड देश और दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब हुआ है। अब उत्तराखंड 24वें साल में प्रवेश कर गया है। इसके इतर कई मामलों में राज्य में कई काम होने बाकी हैं। जानिए विकास के मामले में उत्तराखंड कहां तक पहुंचा… उत्तराखंड तेजी से विकास की ओर कदम बढ़ा रहा है, लेकिन गति थोड़ी धीमी है। इसमें कहीं न कहीं अफसरशाही का भी बड़ा हाथ है। हर साल प्रदेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती वार्षिक बजट के समय पर उपयोग की होती है।
उत्तराखंड में अधिकतर दुर्गम भूभाग होने के कारण विकास कार्यों में अधिक लागत आ रही है। ढांचागत विकास के लिए राज्य सरकार के पास स्वयं के वित्तीय संसाधन सीमित हैं। इसलिए केन्द्र सरकार से मिलने वाली सहायता पर उत्तराखंड की निर्भरता अधिक है। इसके बावजूद बजट का समुचित उपयोग नहीं होने से राज्य को हानि उठानी पड़ रही है। प्रदेश के विकास का वार्षिक बजट के सदुपयोग से सीधा नाता है। जितना बेहतर तरीके से बजट खर्च होगा, अवस्थापना सुविधाएं उतनी ही तेज गति से वंचित क्षेत्रों तक पहुंचेंगी। इसके साथ ही यह भी सच्चाई है कि राज्य गठन के बाद से ही अब तक बजट खर्च को लेकर विभागों का रवैया संतोषजनक नहीं रहा है।बजट आकार और खर्च के लिए विभागों को स्वीकृत की जा रही बजट राशि में बड़ा अंतर है। बीते कई वर्षों से यह 20 हजार करोड़ या इससे अधिक रहा है। केन्द्र सरकार की मदद के बावजूद उत्तराखंड विकास की राह में तेज गति नहीं पकड़ पा रहा है। प्रदेश में पेयजल, आवास, सड़कों का जाल समेत ढांचागत सुविधाओं के विस्तार और जन कल्याण के कार्यों का जिम्मा जिन विभागों पर है, वे बजट के शत-प्रतिशत सदुपयोग के मोर्चे पर हाफ रहे हैं।
पिछले वित्तीय वर्ष 2022-23 में शहरी विकास 1190 करोड़ की बजट राशि खर्च नहीं कर सका। प्रारंभिक शिक्षा में 267 करोड़, माध्यमिक शिक्षा में 429 करोड़ का उपयोग नहीं हुआ। सरकार ने वार्षिक बजट में से विभागों को जितनी राशि स्वीकृत की, उसमें से 5000 करोड़ से अधिक राशि खर्च नहीं की जा सकी। ये तस्वीर उस देवभूमि की है, जिसे अपने सीमित संसाधनों के कारण दूरस्थ और दुर्गम क्षेत्रों में विकास कार्यों और रहन-सहन की गुणवत्ता से संबंधित सुविधाओं पहुंचाने के लिए केंद्र के दर पर पाई-पाई पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।उत्तराखंड राज्य को बने 23 वर्ष हो गए लेकिन आज तक भी उत्तराखंड आत्मनिर्भरता प्राप्त नही कर सका।विकास पुरूष ने अपने शासनकाल में राज्य के अंदर जो औद्योगिक नगर बसाए थे उनमें से करीब 400 औद्योगिक इकाइयां बंद हो चुकी है या फिर पलायन कर चुकी है,एक तरफ ये इकाइयां एक एक कर बंद हो रही थी दूसरी तरफ राज्य के मुख्यमंत्री विदेशों में निवेश के एमओयू साइन करवा रहे थे।
विदेशों व मुंबई जैसे महानगरों के निवेशक कब उत्तराखंड आएंगे यह तो पता नही ,लेकिन जो उद्योग लगे हुए है उनका बंद होना निश्चित ही चिंता जनक है।यही हाल उपभोक्ता अदालतों भी है ,हरिद्वार जिले में एक साल से उपभोक्ता अदालत में जज व अब सदस्य भी न होने के कारण सुनवाई ठप्प है,यही हालत देहरादून जिला उपभोक्ता आयोग व अन्य जिलों में भी है,लेकिन सरकार की सेहत पर कोई फर्क नही पड़ रहा है।किसानों के बकाया गन्ना मूल्य भुगतान व नया गन्ना मूल्य घोषित न होने व बाढ़ पीड़ित किसानों का मुआवजा बढाने को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री की आवाज सरकार सुनने को तैयार नही है।राज्य के कर्मचारी पुरानी पेंशन बहाली को लेकर आंदोलन कर रहे है,लेकिन कोई सुनवाई नही ,ऐसे में राज्य स्थापना दिवस पर चेहरे पर रौनक कैसे आ सकती है।आज 23 साल बीतने पर भी उत्तराखंड में न तो स्थाई राजधानी बन पाई और न ही उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों के चिन्हीकरण का काम पूरा हो पाया।
राज्य आंदोलन के शहीदों तक को आज तक इंसाफ न मिलना सरकार की विफलता ही कही जाएगी। उत्तराखंड में सरकार किसी की भी रही हो ,उत्तराखंड के मूलभूत सरोकार आज भी ज्यो के त्यों है। गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी तो घोषित कर दिया गया था, लेकिन स्थायी राजधानी के मुद़्दे को आज तक भी हल नही किया गया है। हालांकि कांग्रेस एलान कर चुकी है कि गैरसैंण को वह स्थायी राजधानी घोषित करेगी। लेकिन कब,इस पर वह भी मौन है,जवाब में सत्ता पक्ष भाजपा ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी ने घोषित किया था, लेकिन स्थायी राजधानी किसी ने नही बनाई। यह राजधानी कब बनाएगी ,इसका कोई जवाब सत्ता किसी के पास नही है।ग्रीष्म कालीन सत्र भी जरूरी नही सरकार गैरसैंण बुलाये,कई बार ये सत्र भी देहरादून में ही बुला लिए जाते है।जबकि गैरसैंण में राजधानी के नाम पर दो सौ करोड़ से अधिक विधानसभा भवन व अन्य भवनों के नाम पर खर्च हो चुका है।
उत्तराखंड की राजनीति इन दिनों करवट लेती दिख रही है। इसमें कुछ ऐसे बदलावों के संकेत मिल रहे हैं जो न सिर्फ़ प्रदेश के राजनीतिक बल्कि यहां के सामाजिक, आर्थिक और जनसांख्यिकीय परिदृश्य को भी पूरी तरह से पलटने की क्षमता रखते हैं। आज़ादी से 17 साल पहले वीर चंद्र सिंह गढ़वाली नाम के एक राष्ट्रभक्त अंग्रेज़ों की फौज में हुआ करते थे।वे उन दिनों ‘रॉयल गढ़वाल राइफल’ की एक टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे। इस टुकड़ी को पेशावर में पठान स्वतंत्रता सेनानियों को कुचलने का आदेश दिया गया था। 23 अप्रैल सन 1930 के दिन जब अंग्रेज़ों ने पठानों पर गोलियां चलाने का हुक़्म दिया तो वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने इस हुक्म को मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने बग़ावत करते हुए ‘गढ़वाली सीज़फायर’ का उदघोष किया जिस पर गढ़वाली फौज ने निहत्थे पठानों पर गोलियां दागने से इनकार कर दिया। इस बग़ावत को इतिहास में ‘पेशावर कांड’ के नाम से जाना जाता है। इस मौजूदा राजनीतिक हलचल का केंद्र वही भराड़ीसैंण है ,जिसे चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम पर ‘चंद्रनगर’ भी कहा जाता है। इसी महान शख्सियत चन्द्रसिंह गढ़वाली का सपना था कि पहाड़ की राजधानी, पहाड़ में ही हो। ‘वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ही उन लोगों में थे जिन्होंने सबसे पहले गैरसैंण में प्रदेश की राजधानी की मांग की थी।
गैरसैंण चमोली ज़िले का एक ऐसा पहाड़ी शहर है जो गढ़वाल और कुमाऊं की सीमा पर बसा है। सन 1990 के आस पास जब पृथक राज्य की मांग उग्र रूप ले रही थी, तब से ही इस प्रस्तावित राज्य उत्तराखंड की राजधानी के रूप में गैरसैंण को देखा जा रहा था। तभी तो 25 जुलाई सन 1992 के दिन तो ‘उत्तराखंड क्रांति दल’ ने गैरसैंण को अपने दल की ओर से पहाड़ की राजधानी घोषित किया और वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम पर इस शहर का नाम ‘चंद्रनगर’ रखते हुए राजधानी क्षेत्र का शिलान्यास भी किया था।इसके बाद कई आंदोलन हुए और अलग राज्य की स्थापना 9 नवंबर सन 2000 में हो गई। लेकिन देहरादून को अस्थायी राजधानी का नाम देने से स्थायी राजधानी का मुद्दा सुलझने की जगह और भी ज़्यादा उलझता चला गया।यानि अब यह साफ हो गया है कि बिना संसाधनों वाले और आर्थिक रूप से कमजोर उत्तराखंड में अब एक नहीं दो-दो राजधानी का बोझ झेलना पड़ रहा है। तत्कालीन सरकार ने गैरसैंण को सिर्फ ग्रीष्म कालीन स्वीकार किया। जो उत्तराखंड के लिए एक घाव की तरह बनकर रह गया है।
पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का कहना है कि कांग्रेस सत्ता में आने पर गैरसैंण को पूर्ण राजधानी बनाएगी। ग्रीष्म कालीन राजधानी पर तत्कालीन मुख्यमंत्री ने कहा था कि यह फैंसला भविष्य के द्वार खोलेगा। उन्होंने कहा था कि यह फैसला इसलिए लिया गया, ताकि उत्तराखंड निर्माण का लाभ दूरस्थ इलाकों को भी मिल सके।तब बोले थे , गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने के बाद सरकार यहां राजधानी के लिए बुनियादी सुविधाएं जुटाने का काम करेगी। विशेषज्ञों और टाउन प्लानरों के साथ बैठकर यहां के विकास का खाका तैयार होगा। उनका मानना था कि अभी गैरसैंण- भराड़ीसैण क्षेत्र राजधानी का दबाव सहने की स्थिति में नहीं है। इसलिए सरकार का फोकस यहां अवस्थापना सुविधाओं के विकास पर रहेगा। यहां राजधानी की सुविधाएं चरणबद्ध तरीके से जोड़ी जाएंगी, इसमें कुछ समय लगेगा। पता किया जाएगा कि यहां की जरूरतें क्या हैं? फिर उसी अनुरूप योजनाएं बनाई जाएंगी। लेकिन इस निर्णय से प्रदेश में अब दो राजधानियां हो गई है, साथ ही स्थायी राजधानी का मुद्दा पहेली ही बना हुआ है। वही स्थाई राजधानी की कार्ययोजना पर भी कोई प्रगति नही हो पाई।
एक बार बजट सत्र के दौरान जिस प्रकार गैरसैण विधानसभा बर्फ से ढक गई थी ,उसे देखकर यही लगता है कि सरकार मौसम की बेरुखी के कारण स्थाई राजधानी के निर्णय तक नही पहुंच सकेगी। राज्य की जनता भी सरकार के ग्रीष्मकालीन शगूफे को पचा नही पा रही है।राज्य के 70 प्रतिशत लोग स्थाई राजधानी के पक्ष में है। तत्कालीन भाजपा की ने यह फैसला लेकर एक विवाद को तो जन्म दे दिया,लेकिन उसका हल उनके बाद के मुख्यमंत्री भी नही खोज पाए। उत्तराखंड में राजधानी का मुद्दा जनभावनाओं से जुड़ा है। राज्य गठन के बाद से ही प्रदेश में गैरसैण में राजधानी बनाए जाने को लेकर आवाज उठती रही हैं। राज्य आंदोलन के समय से ही गैरसैंण को जनाकांक्षाओं की राजधानी का प्रतीक माना गया है। यही वजह है कि कांग्रेस और भाजपा की सरकारें गैरसैंण को कभी खारिज नहीं कर पाई।
कांग्रेस सरकार ने जब गैरसैंण में विधानमंडल भवन बनाया, तब उन पर भी राजधानी घोषित करने का दबाव बना था। राजनीतिक आंदोलन से जुड़ा एक वर्ग गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाए जाने की वकालत करता रहा है। राज्य गठन से पहले उत्तर प्रदेश की मुलायम सरकार की गठित कौशिक समिति ने अपनी रिपोर्ट में 70 प्रतिशत लोगो की पसंद गैरसैण को कहा था। वही उक्रांद ने 27 साल पहले गैरसैंण में राजधानी का शिलान्यास किया था। राज्य आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाने वाले उक्रांद के केंद्रीय अध्यक्ष ने कहा कि राज्य गठन के बाद भी जन भावनाओं की अनदेखी हुई है। सरकार गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन नहीं बल्कि स्थायी राजधानी घोषित करे। उक्रांद ने कहा था कि राज्य गठन आंदोलन के दौरान ही आंदोलनकारियों ने यह तय कर लिया था कि अलग राज्य बनेगा और उसकी राजधानी गैरसैंण होगी।
राज्य के लिए कई आंदोलनकारियों ने अपनी शहादत दी। नवंबर 2000 में अलग राज्य बना, लेकिन 23 साल बाद भी गैरसैंण स्थायी राजधानी नहीं बन सकी। लेकिन आंदोलनकारियों को ग्रीष्मकालीन राजधानी मंजूर नहीं है। लोग की मांग है कि पुष्कर सिंह धामी सरकार स्पष्ट करे कि किस कारण से वह दो राजधानी बनाना चाहती है। राज्य आंदोलन के शहीदों के सपनों के अनुरूप राज्य की स्थायी राजधानी गैरसैंण घोषित करने में परेशानी क्या है। शहीदों का कभी यह सपना नहीं था कि गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी बने। राज्य आंदोलन कारी गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की मांग को लेकर आंदोलन जारी रखेगे। सरकार के लिए भी गैरसैंण में ढांचागत सुविधाएं जुटाना बड़ी चुनौती होगी। करीब दस किमी क्षेत्र में फैला गैरसैंण-भराड़ीसैंण क्षेत्र आज भी बुनियादी सुविधाओं को तरस रहा है।
वर्ष 2021 में कांग्रेस सरकार द्वारा पहली बार गैरसैंण में कैबिनेट बैठक आयोजित की गई थी। तब उम्मीद जगी थी कि क्षेत्र में सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा, संचार, सुरक्षा, बैंक जैसी मूलभूत सुविधाएं बेहतर होंगी, लेकिन 10 वर्ष बीत जाने के बाद भी गैरसैंण-भराड़ीसैंण में विधान सभा भवन निर्माण के अलावा अवस्थापना विकास के नाम पर कोई भी कार्य नहीं हुआ है। गैरसैंण और भराड़ीसैंण की प्यास बुझाने के लिए पिंडर नदी से पानी लिफ्ट करने की योजना धरातल पर नहीं उतर पाई । यहां के जलस्रोतों का भी बेहतर संरक्षण नहीं किया जा सका है। दिवालीखाल से भराड़ीसैंण की राह आसान बनाने के लिए सड़क का चौड़ीकरण समय की आवश्यकता है।
स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर यहां एकमात्र सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है,जो बिना विशेषज्ञ डॉक्टरों के संचालित हो रहा है। संचार सेवा की बदहाली विधानसभा सत्र में भी देखने को मिली है। यहां मोबाइल सिग्नल न के बराबर है। ऐसे में कैसे गैरसैण ग्रीष्म कालीन राजधानी का वजूद ले पाएगी यह यक्ष प्रश्न आज भी मौजूद है।वह भी तब जब कोई पहाड़ में रहना ही नही चाहता।नेता ,अधिकारी और कर्मचारी देहरादून छोड़ना ही नही चाहते।विधानसभा सत्र के दौरान हुई बर्फबारी से नेताओ और अधिकारियों दोनों की हालत पतली हो गई थी। तभी तो स्थाई के बजाए ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर अपनी सुख सुविधाओं को सरकार के स्तर से तरजीह दी गई। उत्तराखंड केन्द्र सरकार से 450 करोड़ की अतिरिक्त सहायता पाने का हकदार हो जाएगा। प्रदेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती वार्षिक बजट के सदुपयोग की रही है। राज्य सरकार राजस्व के अपने स्रोतों और केन्द्र सरकार से मिल रही सहायता के बल पर लोकलुभावन बड़ा बजट तैयार तो करती है, लेकिन बजट की बड़ी धनराशि खर्च नहीं होने से धरातल पर उसका अपेक्षित लाभ आमजन को नहीं मिल सका।
राज्य बनने के बाद से ही बजट खर्च की लचर हालत अब तक सरकारों को सुखद अहसास नहीं करा पाई है। यद्यपि, बीते वर्ष नवंबर माह में मसूरी में हुए चिंतन शिविर में सरकार और प्रदेश के आला अधिकारियों ने इस समस्या के समाधान का फार्मूला तैयार किया। इसमें बजट की स्वीकृति की प्रक्रिया के सरलीकरण पर विशेष जोर दिया गया। वित्तीय वर्ष 2023-24 की शुरुआत से ही धामी सरकार ने इस पर अमल भी किया, लेकिन इसकी गति धीमी रही। खैर राज्य स्थापना दिवस पर देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू राज्य में पधारी है,हमे उनका स्वागत तो करना ही चाहिए और उत्तराखंड आत्मनिर्भर बने इसके लिए नए सिरे से विकास नीति यहां की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार तय हो ,तभी उत्तराखंड राज्य अपने वजूद को कायम रख सकता है।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )