आपदा की दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
बस, ये बरसात बीत जाए तो चल जाएगा।आपदा की दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड का परिदृश्य को कुछ ऐसा ही बयां कर रहा है। एक आपदा आने के बाद तंत्र दूरदृष्टि वाले सपने बुनता है और तमाम तरह के दावे किए जाते हैं, लेकिन इनकी कलई तब खुलती है जब दूसरी आपदा में तंत्र मूकदर्शक की भूमिका में ही दिखता है। इस बार के ही हालात देखें तो अतिवृष्टि से जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। उस पर आपदा प्रबंधन की स्थिति यह है कि सड़कों को खुलवाने में ही कई-कई दिन लग जा रहे हैं। ऐसा ही अन्य मामलों में भी है। इस सबको देखते हुए अब आपदा प्रबंधन को लेकर नए सिरे से सोच-विचार की जरूरत है।
विषम भूगोल वाले उत्तराखंड का प्राकृतिक आपदाओं से चोली-दामन का साथ है।अतिवृष्टि, भूस्खलन, बादल फटना, बाढ़, भूकंप जैसी आपदाओं से राज्य निरंतर जूझ रहा है। ऐसे गांवों की संख्या चार सौ का आंकड़ा पार कर चुकी है, जो आपदा के दृष्टिकोण से बेहद संवेदनशील हो गए हैं। यह सही है कि आपदा पर किसी का वश नहीं चलता, लेकिन बेहतर प्रबंधन से इसके असर को न्यून किया जा सकता है। इसी दृष्टिकोण से सरकार ने अलग से आपदा प्रबंधन विभाग भी गठित किया है। यद्यपि, आपदा न्यूनीकरण के तहत विभाग समय-समय पर कदम उठाता आया है, लेकिन इनमें निरंतरता, समन्वय, मॉनिटरिंग का अभाव अखरता है। यही कारण है कि आपदा आने पर वह गंभीरता नहीं
दिखती, जिसकी दरकार है।
आपदा के समय फौरी तौर पर कुछ व्यवस्था अवश्य होती है, लेकिन कुछ दिन बाद मामला जस का तस हो जाता है। आपदा प्रबंधन विभाग अभी तक पूरी तरह से सशक्त नहीं हो पाया है। उसके पास स्टाफ के साथ ही विशेषज्ञों का अभाव है। अधिकांश लोग उपनल अथवा संविदा पर कार्यरत हैं और इनकी संख्या भी बेहद कम है। ऐसे में जब काम करने वाले हाथ ही नहीं होंगे तो आपदा न्यूनीकरण, चेतावनी तंत्र,उपकरणों की देखभाल कैसे होगी, यह अपने आप में बड़ा विषय है। हालांकि प्रदेश के5 जिलों में सामान्य से कम वर्षा भी दर्ज हुई।अवर्षण भी एक आपदा ही है। एक तरफ असामान्य बारिश और दूसरी तरफ भूस्खलन जैसी आपदायें सहोदर राज्य हिमाचल और उत्तराखंड के लिए बहुत गंभीर खतरे के सबब बने हुये हैं।
आपदाओं की बढ़ती आवृति को देखते हुए यह कहना असंगत न होगा कि अपनी मुसीबत के लिए इंसान स्वयं ही ज्यादा जिम्मेदार है। विकास के नाम पर प्रकृति के साथ बेतहासा छेड़छाड़ से भी आपदाएं बढ़ रही है।हिमाचल में हुएविनाश के पीछे चौड़ी सड़कों के लिए पहाड़ों को बेतहासा कटान माना जा रहा है। लेकिन ऑल वेदर रोड के नाम पर उत्तराखंड में जिस तरह पहाड़ों का कत्लेआम कर आपदाओं को दावत दी गयी उस पर मुख्यधारा का मीडिया भी पर्दा डालता रहा। सन् 2013 में केदारनाथ आपदा के बाद फरवरी 2021 हिमालय के अंदरधौली गंगा की बाढ़ से हमने सबक नहीं सीखा है। धंसते हुए जोशीमठ की ओर हम 1975 से आंखें मूंदे हुए थे। यद्यपि, अब इसे लेकर उच्च स्तर पर मंथन शुरू हो गया है, इसके क्या नतीजे आते हैं, इस पर सभी की नजर है।
ये बात अलग है कि निर्जन हो चुके गांवों में जिन व्यक्तियों की भूमि व भवन हैं, उन्हें इसके लिए राजी करना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं होगा। राज्य में अतिवृष्टि, भूस्खलन, नदियों की बाढ़, भूकंप जैसी आपदाओं के कारण प्रभावित गांवों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। पर्वतीय क्षेत्र में ऐसे गांवों की संख्या सर्वाधिक है। इसे देखते हुए आपदा प्रभावित गांवों के पुनर्वास के लिए वर्ष 2011 में पुनर्वास नीति आई, लेकिन शुरुआत में इसकी गति बेहद धीमी रही। केवल दो गांवों के 11 परिवार ही विस्थापित किए गए। इसके बाद इस मुहिम में तेजी आई और 2016 से अब तक 86 गांवों के 1485 परिवारों को विस्थापित किया गया।अभी भी शासन स्तर पर 10 गांवों के 78 और जिला स्तर पर 22 गांवों के 148 परिवारों के पुनर्वास से संबंधित प्रस्ताव लंबित पड़े हैं।
यद्यपि, शासन का कहना है कि इन प्रस्तावों पर जल्द निर्णय लेने के साथ ही पुनर्वास की गति को अब तेज किया जाएगा।जानकारों के अनुसार यह चुनौती ऐसी नहीं, जिससे पार न पाया जा सके। आपसी सहमति और संबंधित परिवारों को समुचित मुआवजा या फिर भूमि अधिग्रहण के विकल्पों के आधार पर इस दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )