देवभूमि की ऐतिहासिक रामलीला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस पर आधारित रामलीला का मंचन कुमाऊं में सबसे पहले सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा की पीठ पर शुरू हुआ था। गीत-नाट्य शैली पर आधारित इस मंचन की परंपरा 163 वर्ष पूर्व शुरू हुई थी। 1860 में सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा के बद्रेश्वर में सबसे पहले मंचन किया गया। इसे तत्कालीन डिप्टी कलक्टर स्व. देवीदत्त जोशी ने प्रारंभ किया था। तब वर्षों तक बद्रेश्वर रामलीला का मंचन का केंद्र रहा। बाद में भूमि विवाद के चलते 1950-51 से यह ऐतिहासिक नंदादेवी के प्रांगण में जारी है। बद्रेश्वर में होने वाली रामलीला को आगे बढ़ाने वालों में पूर्व में स्व. केशव लाल साह, गोङ्क्षवद लाल साह मैनेजर, स्व. गंगा ङ्क्षसह बिष्ट एमएलए, चंद्र ङ्क्षसह नयाल, स्व. नंदन जोशी रहे। उसके बाद इस परंपरा को आगे बढ़ाने में स्व. डॉ. जगन्नाथ सनवाल, स्व. भुवन जोशी, स्व. ब्रजेंद्र लाल साह सहित अनेक दिवंगत संस्कृति प्रेमियों व कलाकारों का योगदान रहा।
पूर्व में बद्रेश्वर में होने वाली रामलीला छिलकों की रोशनी में की जाती थी। बाद में उजाले की व्यवस्था पेट्रोमेक्स से की जाने लगी। वर्तमान में आधुनिक तकनीक का प्रयोग रामलीलाओं में किया जाने लगा है। इस रामलीला के मंचन से नृत्य सम्राट पं.उदय शंकर भी प्रभावित रहे। उन्होंने भी इस रामलीला के मंचन में अनेक प्रयोग किए। बाद में उन्होंने छाया चलचित्रों के माध्यम से मंचन को और आकर्षक बनाया। इसका प्रभाव आज भी दिखता है। वर्तमान में रामलीला के अनेक दृश्य छायाचित्रों के माध्यम से दिखाए जाते हैं।, संस्कृति प्रेमी का कहना है कि बद्रेश्वर की रामलीला का आकर्षण लोगों को दूर-दूर से खींच लाता है। हारमोनियम की सुरीली धुन, तबले की गमक और मंजीरे की खनक के साथ पात्रों का गायन कर्णप्रिय होता है। वर्तमान में नगर अनेक स्थानों में रामलीला का मंचन होता है।
प्रतिवर्ष पहले शारदीय नवरात्र की शुरुआत के साथ ही रामलीलाओं के मंचन की शुरुआत हो जाती है। रामलीला मंचन के दौरान मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के जीवन की प्रमुख घटनाओं को दर्शाया जाता है और विजयादशमी के दिन रावण-वध का मंचन करते हुए रावण परिवार के पुतले जलाए जाते हैं। भारतीय संस्कृति में श्रीराम ऐसे चरित्र हैं, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में पुत्र, भाई,पति, पिता एवं अयोध्या के शासक के रूप में अपनी प्रजा के प्रति सदैव आदर्श जीवन जिया और इन्हीं सद्गुणों के कारण उन्हें न केवल भारत में बल्कि कई देशों में श्रद्धापूर्वक पूजा जाता है। माना जाता है कि रामलीला मंचन की परम्परा की शुरुआत उत्तर भारत से हुई थी और इसके कुछ साक्ष्य 11वीं शताब्दी में मिलते भी हैं।
शुरुआती दौर में रामलीला मंचन महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य रामायण की पौराणिक कथा पर आधारित था लेकिन अब इसकी पटकथा गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित रामायण के नायक राम की महिमा को समर्पित पवित्र महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ पर आधारित है। विभिन्न कथाओं के अनुसार तुलसीदास के शिष्यों ने १६वीं सदी में रामलीला का मंचन करना प्रारंभ किया था। यह भी कहा जाता है कि जब गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस पूरी की थी, तब काशी नरेश ने रामनगर में रामलीला मंचन कराने का संकल्प लिया था और तभी से देशभर में रामलीलाओं के मंचन का सिलसिला प्रारंभ हुआ।
वास्तव में रामलीला रामायण महाकाव्य का एक ऐसा मनोहारी प्रदर्शन है, जिसमें दृश्यों की शृंखला में गीत, कथन, गायन और संवाद सम्मिलित होते हैं। वैसे तो रामलीलाओं का आयोजन पूरे देश में भव्य स्तर पर होता है लेकिन अयोध्या, रामनगर, वाराणसी, वृंदावन, अल्मोड़ा, सतना, मधुबनी इत्यादि की रामलीलाएं सर्वाधिक विख्यात हैं। उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में तो विभिन्न क्षेत्रीय रीति-रिवाजों के अनुसार विभिन्न शैलियों में रामलीला का मंचन किया जाता है। सबसे प्रसिद्ध और प्रमुख रामलीला मेला राजा काशी नरेश के किले में रामनगर वाराणसी में आयोजित किया जाता है।हालांकि, सभी जगह रामलीलाओं के माध्यम से मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों को जन-जन तक पहुंचाना और समरसता लाना इसका उद्देश्य रहा है।
लक्ष्मण का अपने बड़े भ्राता राम एवं भाभी सीता के प्रति आदर का भाव हो या संकटमोचक हनुमान की अनूठी रामभक्ति अथवा पति श्रीराम के प्रति अपार श्रद्धा के साथ माता सीता के बलिदान का अनुपम उदाहरण, रामलीलाओं में सही मायनों में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम सहित ऐसे तमाम चरित्रों से भी बहुत कुछ सीखने और समझने को मिलता है। और इसीलिए आज के बदलते युग में समाज में राम जैसे आज्ञापालक पुत्र, भाई, पति, एवं आदर्श शासक के संस्कारों को जीवित रखने के लिए रामलीला मंचन की जरूरत भी महसूस होती है।वास्तव में भक्ति और श्रद्धा के साथ आयोजित रामलीलाओं ने भारतीय संस्कृति एवं कला को जीवित बनाए रखने में बहुत अहम भूमिका निभाई है।
श्रीराम के आदर्श, अनुकरणीय एवं आज्ञापालक चरित्र तथा सीता, लक्ष्मण, भरत, हनुमान, जटायु, विभीषण, शबरी इत्यादि रामलीला के विभिन्न पात्रों द्वारा जिस प्रकार अपार निष्ठा, भक्ति, प्रेम, त्याग एवं समर्पण के भावों को रामलीला के दौरान प्रकट किया जाता है, वह अपने आप में अनुपम है और नई पीढ़ी को धर्म एवं आदर्शों की प्रेरणा देने के साथ-साथ उसमें जागरूकता का संचार करने के लिए भी पर्याप्त है।रामलीलाओं में हमें भक्ति, श्रद्धा, आस्था, निष्ठा, कला, संस्कृति एवं अभिनय का अद्भुत सम्मिश्रण देखने को मिलता रहा है।रोजमर्रा की जिंदगी में पत्रकार, डॉक्टर, व्यापारी, नौकरीपेशा, ठेली लगाने वाले रात को कैरेक्टर में घुसकर एकदम समाजवादी हो जाते हैं। कोई किसी से बड़ा नहीं, कोई किसी से छोटा नहीं। एक संस्कृति से रात भर रूबरू होने का नाम है रामलीला। रामलीला जिसमें भाव है, ताप है, षड्यंत्र है, संगीत है, सृष्टि है, विनाश है, वध है, और कहा जाए तो जिसमें अल्मोड़ा में यूनेस्को की विश्व सांस्कृतिक धरोहर बनने का माद्दा रखने वाली अल्मोड़ा की रामलीला, है।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )