रिंगाल ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए हरा सोना है
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पहाड़ की अर्थव्यवस्था के साथ रिंगाल का अटूट रिश्ता रहा है। रिंगाल बांस की तरह की ही एक झाड़ी है। इसमें छड़ी की तरह लम्बे तने पर लम्बी एवं पतली पत्तियां गुच्छी के रूप में निकलती है। यह झाड़ी पहाड़ की संस्कृति से जुड़ी एक महत्वपूर्ण वनस्पति समझी जाती है। पहाड़ के जनजीवन का पर्याय रिंगाल, पहाड़ की अर्थव्यवस्था का सुदृढ़ अंग रहा है। प्राचीन काल से ही यहाँ के बच्चों की प्राथमिक शिक्षा का श्री गणेश रिंगाल की बनी कलम से होता था। घास लाने की कण्डी से लेकर सूप, टोकरियां, चटाईयां, कण्डे, बच्चों की कलम, गौशाला, झोपडी तथा मकान तक में रिंगाल अनिवार्य रूप में लगाया जाता है।
सामान्यतः रिंगाल हस्तशिल्पियों या रूडिया समुदायों से मिली जानकारी के अनुसार रिंगाल क्राफ्ट बनाने में सर्वाधिक उपयोग देव रिंगाल का किया जाता है लेकिन देव रिंगाल के साथ-साथ मालिंगा और गडेलु की भी सींकें एवं पत्तियां बनाकर कम लगने की वजह से मालिंगा, गडेलु और भटपुन्तरू रिंगाल का उपयोग शिल्प बनाने में किया जा रहा है। चमोली के सभी विकासखण्डों के दूरस्थ आंतरिक क्षेत्रों में प्रमुखतः रिंगाल कार्य आज भी बदस्तूर चला आ रहा है। सड़क व उससे जुडे़ गाँवों में अवश्य परिवर्तन आये हैं, और वे परम्परागत उद्यमों से दूर होते जा रहे हैं।ग्रामीण जन वनाधारित उद्योगों पर कहीं न कहीं निर्भर है। आज भी रिंगाल के कार्य का चलन यहाँ के अधिकाँश गाँवों में है। रिंगाल से बना सामान चमोली और रूद्रप्रयाग के प्रमुख यात्रा एवं तीर्थ मार्गों पर बेचा जाता है। यही नहीं रिंगाल हस्तशिल्पी अपने बनाये हुए सामान को बेचने ऋषिकेश व देहरादून भी आने लगे हैं।
रिंगाल दूरस्थ ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों की दस्तकारी हस्तशिल्प का ना केवल सर्वोत्तम माध्यम है। वरन् यहाँ की सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक जन जीवन का महत्वपूर्ण अंग भी है। रिंगाल बांस प्रजाति की झाड़ी है जो सामान्यतया 3 मीटर से 25 मीटर तक लम्बी होती है। यह झाड़ी मानसूनी शीतोष्ण जलवायु में समुद्रतल से 4000 फीट से लेकर 10,000 फीट तक ही ऊँचाई, शत प्रतिशत आर्द्रता वाले स्थानों में सभी जगह उपलब्ध होती है। रिंगाल अरून्डिनेरिया प्रजाति की एक बहुपयोगी झाड़ी है। पूरे विश्व में इसकी लगभग 80 प्रजातियां है। जिनमें से 26 प्रजाति भारत में पायी जाती है। इन विभिन्न प्रजातियों में थाम, देव रिंगाल, गिवास, गडेलू आदि रिंगाल का प्रयोग इस क्षेत्र में स्थानीय निवासियों द्वारा काश्तकारी के लिए किया जाता है। रिगाल यहाँ के जीवन में रच बस गई है. स्कूल में प्रवेश करते ही बच्चों को इसकी कलम की आवश्यकता पड़ती है।
परम्परागत् वस्तुएं जैसे टोकरी, डाला, चटाई, अनाज भण्डारण बनाने में तथा साथ ही घरों की दीवार तथा छत बनाने में भी इसका प्रयोग किया जाता है। इन वस्तुओं का प्रयोग प्रत्येक कृषक परिवार के लिए आवश्यक होता है। ये वस्तुएं जहाँ एक ओर बहुत आवश्यक है वहीं इसे दूसरी ओर गरीबों की लकड़ी का नाम दिया गया है। ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में इसे गरीबों की खेती भी कहा जाता है। यह मुख्यतः बांज के जगलों में पाया जाता है। सन् 1962 के युद्ध के पश्चात् तिब्बत और भारत के बीच चल रहे परम्परागत व्यवसाय तथा आवाजाही पर रोक लग गये जिससे कुमाऊं के बुनकरों जो कि मुनसारी के उत्तरी क्षेत्र में रह रहे थे को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। उनको वस्तुओं को बनाने के लिए काफी दूरी से कच्चा माल लाना पड़ रहा था उन स्थानों पर आसानी से नहीं पहुचा जा सकता था। वे लोग महीनों तक कच्चा माल एकत्रित करने के लिए अपने घरों को छोड़ कर जाते थे जिसमें उनका काफी पैसा खर्च हो जाता था।
घर आंगन बुहारने के लिए रिंगाल की कोंपले झाडू के रूप में प्रयुक्त होती हैं। रिंगाल का तना पाल वाले मकान के रूप में तथा छप्पर में घास को उड़ने से बचाने के लिए सेफ्टी के रूप में प्रयुक्त होता है। रिंगाल टोकरी के लिए सब्जी की डलिया, गाय व बैल के लिए घास की कन्डी व सोल्टे के लिए, माप के सेर पाथे के लिए, बडी माप के डाले के लिए, अनाज के भूसे को छानने के लिए देवताओं का छत्तर डोली, फटकने के सुप्पे के लिए, बच्चों के झूले के लिए, अनाज को सुरक्षित रखने के लिए, मछली पकड़ने के गोते के लिए, बांसुरी बनाने आदि के लिए प्रयोग किया जाता है। रिंगाल की प्रथम फसल सितम्बर में शुरू होती है। और ठीक छः महीने बाद अर्थात् फरवरी के महीने में इसकी कोंपले रिंगाल के रूप में तैयार हो जाती है।
इस कोमल रिंगाल का प्रयोग ऊपरी इलाकों में काश्तकारों द्वारा छप्पर आदि बनाने के लिए,रस्सी के रूप में किया जाता है। यह रिंगाल अत्यन्त लचीला एवं मजबूत होता है। देव रिंगाल काश्तकारी के लिए सबसे अच्छी प्रजाति मानी जाती है। इसकी छडे़ं सामान्यतः 10 से 20 मीटर लम्बी होती है। तथा दो हिस्सों में फाड़ने में अत्यन्त सुविधाजनक होती है। इस पर आधे मीटर की दूरी पर गांठे बनी होती है। गांठों पर गुच्छेदार घास होती है। यह अत्यन्त शुद्ध व पवित्र छुआछूत से परे मानी जाती है। यह देव अर्चना के लिए प्रमुख होती है इसलिए देंव रिगाल कहलाती है।
रिंगाल एशिया अफ्रीका में फैला हुआ है। भारत में रिगाल की लगभग 9 प्रजातियां पायी जाती है। इसमें से कुछ प्रजाति मुख्य रूप से चटाईयां बनाने के लिए उपयोग में लायी जाती है। अधिकांशतः रिंगाल एक सीधा झाड़ीनुमा पौधा है। जिस पर लम्बी खोखली और अधिकतर हरी छड़े होती हैं। जिसकी लम्बाई 9 मीटर, गोलाई 0.6 से 2.6 सेमी० होती है। इनमें फूल अन्य प्रजातियों के रिगाल की तरह ही खिलते है। रिंगाल की अच्छी पैदावार के लिए छायादार स्थान उपयुक्त रहता है। इसके लिए चिकनी मिटटी एवं नमी वाला स्थान होना चाहिए। क्योकि यह जल शून्य अथवा शुष्क भूमि को सहन नही कर सकता। इसकी पैदावार 9 से 36 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान पर अच्छी होती है। इसको पुराने पौधों से अलग करके फैलाया जा सकता है। अर्थात इसकी कलमे काट कर लगाई जाती है। अच्छे परिणाम के लिए पहले इसे गमले में ग्रीन हाउस में रखा जाता है।
हिमालयी क्षेत्र में उत्तराखण्ड राज्य का अपना एक विशिष्ट स्थान है। उत्तराखण्ड पर्वतीय प्रदेश की आर्थिकी का प्रमुख स्रोत राज्य में धार्मिक पर्यटन/ तीर्थ यात्रा तथा पर्यटन है। हालांकि पिछले 7-8 वर्षों में राज्य में एडवेंचर टूरिज़्म को बढ़ावा मिला है। और जहाँ पहले सिर्फ ट्रैकिंग, माउंटेनियरिंग, स्कीइंग तथा रिवर राफ्टिंग को ही एडवेंचर टूरिज़्म का प्रमुख माध्यम माना जाता था अबउसके स्थान पर साहसिक पर्यटन की नई विधायें जैसे- बंजी जम्पिंग, हाॅट एअर बैलून, पैराग्लाइडिंग, रॉक क्लाइम्बिंग, स्नो सर्फिंग, रिवर क्रॉसिंग और साइक्लिंग के साथ-साथ इकोटूरिज़्म की नई विधा एग्रो टूरिज़्म और नेचर गाइड से सम्बन्धित क्रिया कलाप एवं आजीविका के संसाधन बढ़े हैं।
उत्तराखंड के सीमांत जिले पिथौरागढ़ के रिंगाल उद्योग को जीआइ टैग (भौगोलिक संकेत) पहचान मिल गई है। सदियों से छुटपुट स्तर पर हो रहे इस उद्योग को पहचान मिल जाने से अब नार्थ ईस्ट के रिंगाल क्राफ्ट को उत्तराखंड से चुनौती मिलेगी। वर्षों से रिंगाल उद्यम से जुड़े का कहना है कि वन अधिनियम के चलते अब जंगलों से रिंगाल निकालना मुश्किल हो गया है। वन पंचायतों में रिंगाल कम है। कड़ी मेहनत के बाद भी बाजार में पूरा दाम नहीं मिल पाता है। सरकार को लोगों को रिंगाल आसानी से उपलब्ध कराने की व्यवस्था बनानी होगी। कुल मिलाकर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे, रिंगाल हस्तशिल्प को आगे बढ़ाने के लिए उत्पादों को बाजार उपलब्ध कराने की आवश्यकता है।
विभिन्न उपयोगों के लिए रिंगाल उत्पादों के आकर्षक डिजाइन का प्रशिक्षण देने, कारीगरों को रिंगाल उपलब्ध कराने, उनके कार्यों को पहचान दिलाने की जरूरत है। मेहनत के लिहाज से कारीगरों की आय में वृद्धि के लिए अभिनव प्रयोगों की दरकार है। जल, जमीन और वनस्पति जीवन के पर्याय हैं। फिर इसके अस्तित्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वनस्पति का पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है। मानव एवं जीवजन्तु जो पर्यावरण के मुख्य अंग है, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पति पर निर्भर रहते, हैं। हर वनस्पति किसी न किसी रूप में उपयोगी है। अतः वनों के बहुआयामी महत्व को देखते हुए इनकी सहायता से पनपने वाले स्थानीय कुटीर उद्योगों की ओर ध्यान केन्द्रित होना स्वाभाविक ही है।
लेकिन आर्थिक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में यह उद्यम लुप्त होते चले गये। यही नहीं ग्रामीण अस्मिता पर शहरी भाग दौड़ का असर पड़ने लगा और ग्रामीण अपनी मौलिकता को छोड़ कर दिखावे की तरफ दौड़ने लगे, ग्रामीण कारीगर अपने उद्योग के प्रति हतोत्साहित होने लगे। इन्हीं सब परिस्थितियों को देखते हुए सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में पुराने समय से चला आ रहा रिंगाल उद्योग उपेक्षित होने लगा। अतः रिंगाल जो कि ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों में पाया जाता है वर्तमान में एक बहुमूल्य वनस्पति के रूप में ग्रामीण कारीगरों के द्वारा प्रयोग किया जाने लगा।
रिंगाल आधारित उद्योग गढवाल एवं कुमाऊ क्षेत्रों के दूरस्थ गाँवों का परम्परागत उद्योग है यह दूसरे नम्बर का सबसे बड़ा एवं विकेन्द्रित उद्योग है जो कि स्थानीय कच्चे माल एवं स्थानीय बाजार पर आधारित है। रिंगाल उद्यमी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और गाँव में रह रहे प्रत्येक प्रकार के उद्यमी परिवार के लिए आवश्यक है। हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाना वाला रिंगाल किसी सोने-चांदी से कम नही है. लेकिन सोने का दाम आसामन छू रहा है और रिंगाल उत्तराखंड के गांवों में ही दम तोड़ रहा है।लिखने की कलम हो या घर मे चार चांद लगाने वाले सजावटी सामान, टोकरियां हो या पहाड़ों में घास व गोबर लाने के लिए घीडे सब रिंगाल से ही बनता है। सब बनता तो है और पहाड़ी क्षेत्रों में रिंगाल के काश्तकार इसको बनाते भी हैं, लेकिन ये अपनी जरूरतें पूरा करने तक ही सीमित रह गया है।सरकार इस कला को आज तक बाजार नहीं दिला पाई है।
(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)