मैदानी आलू ने फीकी की पहाड़ी आलू की मिठास
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
जबकि पर्वतीय क्षेत्र का आलू कोल्ड स्टोरेज में नहीं रखा जाता वह पूर्ण जैविक तरीके से उगाया जाता है इसलिए उसकी कीमत भी अधिक होती है और यह खाने में भी स्वादिष्ट होता है लेकिन मैदानी आलू सस्ता होने के कारण लोग उसे ही खरीदना पसंद कर रहे हैं जिससे पर्वतीय क्षेत्र के आलू को नुकसान हो रहा है। दुकानदार भी मैदानी आलू को पर्वतीय बताकर बेच रहे हैं जिससे उन्हें मुनाफा हो रहा है। जबकि पर्वतीय क्षेत्र का आलू कोल्ड स्टोरेज में नहीं रखा जाता वह पूर्ण जैविक तरीके से उगाया जाता है इसलिए उसकी कीमत भी अधिक होती है और यह खाने में भी स्वादिष्ट होता है लेकिन मैदानी आलू सस्ता होने के कारण लोग उसे ही खरीदना पसंद कर रहे हैं जिससे पर्वतीय क्षेत्र के आलू को नुकसान हो रहा है। दुकानदार भी मैदानी आलू को पर्वतीय बताकर बेच रहे हैं जिससे उन्हें मुनाफा हो रहा है।
आलू उत्पादन के हिसाब से हमारे भारत देश का विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान है एवं हमारे कृषक अपनी अथक मेहनत से हर वर्ष लगभग 400 लाख मेट्रिक टन आलू का उत्पादन करते हैं।आजादी से लेकर अब तक हमारे देश में आलू का उत्पादन दिन -प्रतिदिन बढ़ता रहा है। इसका एक बड़ा श्रेय केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान को भी जाता है जिसने अब तक विभिन्न जलवायु क्षेत्रों के अनुसार, पचास आलू की किस्मों का विकास किया है। इस बढ़ते हुए आलू उत्पादन से एक विकट समस्या भी पैदा हुई है और वो है आलू का भण्डारण। हमें यह ज्ञात है कि आलू में लगभग 80 प्रतिशत जल होता है और ऐसी फसल को संभाल कर रखना एक चुनौती से कम नहीं है। इसके लिए संस्थान द्वारा ऐसी कई तकनीकियों का विकास किया गया है जिनसे आलू का भण्डारण की समस्याओं का निदान किया जा सके।
देश के अधिकतर भागों में (85 प्रतिशत मैदानी इलाके) आलू की खुदाई फरवरी- मार्च के महीनों में होती है, जिसके पश्चात ग्रीष्म ऋतु आ जाती है। ऐसी परिस्थिति में आलू में अत्याधिक ह्रास होने की सम्भावना रहती है अत: आलुओं को सामान्यत: शीत भण्डारों में सुरक्षित रखा जाता है हर किसी शहर की अपनी एक खास पहचान होती है जैसे उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ अपने खानपान के लिए तो बरेली जैसा शहर अपनी झुमके और फिरोजाबाद शहर चूड़ियों के लिए जाना जाता है। लेकिन उत्तराखंड की कमर्शियल कैपिटल के नाम से जाने वाली हल्द्वानी की भी देश और दुनिया में एक अलग पहचान है। हल्द्वानी अपने खास आलू के कारण अलग पहचान रखता है। बाजार में जहां बाकी आलू फीके पड़ जाते है तो वहीं हल्द्वानी के आलू की कीमत कई गुना ज्यादा होती है। वही हल्द्वानी का आलू ग्राहक मन मुताबिक रेट देकर आसानी से खरीद लेता हैं मंडी में आलू की खूब बिक्री हो रही है, मगर मैदानी क्षेत्र के कोल्ड स्टोरेज से आ रहे आलू ने पर्वतीय क्षेत्र के जैविक आलू की मिठास कम कर दी है।
मैदानी क्षेत्र से आ रहा आलू पर्वतीय आलू की अपेक्षा सस्ता है, जिस कारण इसकी डिमांड ज्यादा है। ऐसे में पर्वतीय आलू की मांग घट गई है और इससे किसानों को भी नुकसान उठाना पड़ रहा है। वहीं पहाड़ी आलू का स्वाद अच्छा होने के साथ-साथ इसमें शुगर की मात्रा भी सामान्य आलू की तुलना में 10 प्रतिशत ही होती है। इसलिए इसे स्वास्थ्य के लिए लाभकारी भी माना जाता है। इसलिए पहाड़ी आलू सामान्य की तुलना में महंगा होता है। यहां की आलू की खास बात यह है कि वह पूरी तरीके से ऑर्गेनिक होता है और यहां का आलू सीधे खेतों से मंडियों को सप्लाई होता है। कोल्ड स्टोरेज में इसका भंडारण नहीं किया जाता है। जिससे इसका स्वाद बेहद ही लाजवाब होता है।
आढ़ती ने बताया कि उत्तराखंड की खासकर कुमाऊं का आलू की खासियत यह है कि यह ताजा आलू होता है। यह आलू पूरी दुनिया में अपनी पहचान रखता है। इस समय यह आलू दिल्ली, आगरा, लखनऊ, बरेली, गाजियाबाद और कानपुर जैसे शहरों में इस आलू की बहुत डिमांड है। इसका स्वाद मैदानी क्षेत्र की आलू की अपेक्षा बेहद ही स्वादिष्ट होता है। वहीं आढ़ती का कहना है कि यहां का आलू पूरा ऑर्गेनिक होता है और कोल्ड स्टोरेज नहीं किया जाता है सीधे खेतों से खोज कर मंडी पहुंचा जाता है और अन्य जिलों को सप्लाई किया जाता है इसलिए शहरों के आलू के मुताबिक यहां के पर्वती जिलों का आलू बेहद ही स्वादिष्ट होता है और इसकी डिमांड देश दुनिया तक है वर्तमान में कहीं भी आलू का उत्पादन नहीं हो रहा है। कोल्ड स्टोरेज में रखा आलू ही मंडियों में आ रहा है, जबकि पर्वतीय क्षेत्र का आलू कोल्ड स्टोरेज में नहीं रखा जाता। वह पूर्ण रूप से जैविक तरीके से उगाया जाता है। इस कारण इसकी कीमत मैदानी आलू की अपेक्षा अधिक होती है। यह खाने में अधिक स्वादिष्ट भी होता है।
मंडी सचिव ने बताया कि बीते एक सप्ताह में पर्वतीय क्षेत्र का 1324 क्विंटल आलू मंडी में आया। वहीं मैदानी क्षेत्र का 3617 क्विंटल आलू मंडी में आया। मैदानी और पहाड़ी आलू दोनों के रेट में दोगुने का फर्क। मंडी में मैदानी आलू 11 से 15 रुपये किलो तो पर्वतीय आलू 22 से 25 रुपये किलो तक बिक रहा है, मगर खुले बाजार में दोनों ही आलू 25 से 30रुपये किलो के भाव बिक रहा है। दुकानदार मैदानी आलू को भी पर्वतीय बताकर बेच रहे हैं। मंडी में आलू की खूब बिक्री हो रही है, मगर मैदानी क्षेत्र के कोल्ड स्टोरेज से आ रहे आलू ने पर्वतीय क्षेत्र के जैविक आलू की मिठास कम कर दी है। मैदानी क्षेत्र से आ रहा आलू पर्वतीय आलू की अपेक्षा सस्ता है, जिस कारण इसकी डिमांड ज्यादा है। ऐसे में पर्वतीय आलू की मांग घट गई है और इससे किसानों को भी नुकसान उठाना पड़ रहा है। पर्वतीय क्षेत्र का आलू स्थानीय मंडियों के अलावा दिल्ली, उत्तर प्रदेश की मंडियों में भेजा जाता है। आलू की ग्रेडिंग की जाती है। प्रतिदिन पांच से सात सौ क्विंटल आलू बाहर भेजा जा रहा है वर्तमान समय में मंडी में आलू की काफी डिमांड हो रही है और मंडी से आलू की खूब बिक्री भी हो रही है। लेकिन मैदानी आलू के कारण पहाड़ी आलू की बिक्री घट चुकी है।
बता दें कि मैदानी क्षेत्र के कोल्ड स्टोरेज से आ रहे आलू ने पर्वतीय क्षेत्र के जैविक आलू की मिठास को कम कर दिया है। मैदानी क्षेत्र से आ रहा आलू पर्वतीय आलू की अपेक्षा सस्ता है जिस कारण इसकी डिमांड मंडी में अधिक है और पर्वतीय आलू की मांग ऐसे में घट गई है जिससे किसानों को नुकसान झेलना पड़ रहा है। जबकि पर्वतीय क्षेत्र का आलू कोल्ड स्टोरेज में नहीं रखा जाता वह पूर्ण जैविक तरीके से उगाया जाता है इसलिए उसकी कीमत भी अधिक होती है और यह खाने में भी स्वादिष्ट होता है लेकिन मैदानी आलू सस्ता होने के कारण लोग उसे ही खरीदना पसंद कर रहे हैं जिससे पर्वतीय क्षेत्र के आलू को नुकसान हो रहा है। दुकानदार भी मैदानी आलू को पर्वतीय बताकर बेच रहे हैं जिससे उन्हें मुनाफा हो रहा है। पहाड़ में जैविक खेती हो सकती है। जैविक उत्पादों का बाजार मूल्य भी रासायनिक उत्पादों से अधिक होता है लेकिन विपणन की पुख्ता व्यवस्था न होने के कारण किसानों को इसका लाभ नहीं मिलता है।
किसानों का कहना है कि पहाड़ में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार की ओर से विभाग को पर्याप्त बजट उपलब्ध नहीं कराया जाता है लेकिन यदि केंद्र सरकार राज्य को पर्याप्त बजट दिलाने के साथ ही राज्य सरकार किसानों को आवश्यक संसाधन, प्रशिक्षण देने के साथ साथ जैविक उत्पादों के विपणन की पुख्ता व्यवस्था करें। यदि ऐसा हुआ तो कुमाऊं में जैविक खेती की तस्वीर को बदला जा सकता है।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )