उत्तराखंड के पहाड़ों में कंडाली के नाम से विख्यात बिच्छू घास (scorpion grass) है मल्टी विटामिनों का खजाना
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
वैसे तो हिमालय क्षेत्रों में अंनगिनत जङी बूटियों का भण्डार है, लेकिन कारगर और स्पष्ट नीति न बनने से इनकी पहचान विलुप्त होती जा रही है। ऐसा ही एक पहाड़ के गांवों में कंडाली के नाम से विख्यात बिच्छू घास है जिसकी उपयोगिता की बातें भले ही सरकारें जब-तब करती रही हो लेकिन धरातल पर अमलीजामा न पहनाये जाने से बिच्छू घास का अस्तित्व ही अब संकट में आ गया है।
जंगली पौधा बिच्छू घास को छूने से ही करंट जैसा अनुभव होता है, लेकिन यह पौधा औषधीय गुणों से भरपूर है कई बीमारियों के साथ ही शरीर को तंदरूस्त रखने में भी वरदान साबित होता है। उत्तराखंड के हिमालयी इलाको में पाये जाने वाले इस पौधे का तना-पत्ती से लेकर जड़ तक हर हाल में काम आता है।
पहाड़ों में कंडाली के नाम से विख्यात इस घास को पहले सब्जी बनाने से लेकर घरेलु औषधीयों के रूप में प्रयोग में लाया जाता था, लेकिन एंटीबायोटिक दवाईयों के इस दौर में इस घास की उपयोगिता बिल्कुल शून्य हो चुकी। भले ही पूर्व में तत्कालिक सरकार में मुख्यमंत्री ने भांग और कंडाली (बिच्छू घास) की खेती को बढ़ावा देने के अनको घोषणायें तो की हैं लेकिन परिणाम विफर ही साबित रहा।
जबकि वर्तमान मुख्यमंत्री में कई बार इसकी उपयोगिता को लेकर कई योजनायें शुरू करने की बातें कह चुके हैं धरातल पर अब तक ये योजनायें नहीं दरअसल बिच्छू घास एक प्रकार की बारहमासी जंगली जड़ी-बूटी है, जिसे अक्सर खरपतवार या बेकार पौधा समझा जाता है। लेकिन अपने गुणों के कारण यह विभिन्न प्रकार के अध्ययनों का विषय बन चुका है। यह मुख्य रूप से हमारे लिए एंटीऑक्सीडेंट का काम करता है। इस पौधे के उपयोगी हिस्सों में इसके पत्ते, जड़ और तना होते हैं।
बिच्छू घास अथवा स्थानीय भाषा में कंडाली कहें जाने वले इस घास से बुखार आने, शरीर में कमजोरी होने, पित्त दोष, गठिया, शरीर के किसी हिस्से में मोच, जकड़न और मलेरिया जैसे बीमारी को दूर भागने में उपयोग करते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी साग-सब्जी भी बनायी जाती है। इसकी तासीर गर्म होती है और यदि हम स्वाद की बात करे तो पालक के साग की तरह ही स्वादिष्ट भी होती है इसमें आइरन, कैल्सियम और मैगनीज प्रचुर मात्रा में होता है।
माना जाता है कि बिच्छू घास में काफी आयरन होता है। जिसे हर्बल डिश कहते हैं। कृषि से जुड़े अधिकारी भी इसे कृषि के क्षेत्र में क्रान्तिकारी बदलाव लाने में उपयोगी मानते हैं। कंडाली बिच्छू घास जैसी ही न जाने कितनी ही जड़ी-बूटियों के भण्डार से पहाड़ भरा पड़ा हैं लेकिन स्पष्ट और कारगर नीति न बनने के कारण ये औषधीय पौधे अब अपने अस्तित्व को ही खो रहे हैं। ऐसे में जरूर है सरकार जुल्मलेबाजियों से इतर इस ओर गम्भीरता से ध्यान दे ताकि यह न केवल किसानों के लिए फायदेमंद हो बल्कि इसका वजूद भी जिंदा रह सके।
बिच्छू घास को लोग भले ही छूने से डरते हैं। इसे अक्सर फ़ालतू पौधा भी समझा जाता है। लेकिन इस सदाबहार जंगली घास में अनेक औषधीय गुण भी पाये गये हैं। इसमें एंटीऑक्सीडेंट में विटामिन ए, बी, सी, डी, आयरन, कैल्शियम, सोडियम और मैगनीज़ प्रचुर मात्रा में होता है। इसके पत्ते, जड़ और तना सभी उपयोगी हैं। इसका पौधा सीधा बढ़ता है। पत्तियाँ दिल के आकार होती हैं। इसके फूल पीले या गुलाबी होते हैं। पूरा पौधा छोटे-छोटे रोये से ढका हुआ होता है।
बिच्छू घास को बुखार, शारीरिक कमजोरी, पित्त दोष निवारक, गठिया, मोच, जकड़न और मलेरिया जैसे बीमारी के इलाज़ में उपयोगी पाया गया है। इसके बीजों का इस्तेमाल पेट साफ़ रखने वाली दवाओं में भी होता है। पर्वतीय इलाकों में इससे साग-सब्जी भी बनायी जाती है। इसकी तासीर गर्म होती है। इसका स्वाद पालक की तरह स्वादिष्ट होता है। सेहत के लिए फ़ायदेमन्द होने की वजह से बिच्छू घास से बनने वाले व्यंजन को लोग च्हर्बल डिशज् भी कहते हैं।
ये विटामिन, मिनरल्स, प्रोटीन और कार्बोहाइट्रेड से भरपूर तथा कोलेस्ट्रोल रहित हैं।उत्तराखंड में एक कम्पनी बिच्छू घास से चाय का उत्पादन भी करती है। फ़िलहाल, इस कम्पनी का सालाना चाय उत्पादन कुछेक क्विंटल में ही है। इस चाय के 50 ग्राम के पैकेट का दाम 125 रुपये के आसपास है। इस चाय का स्वाद खीरे के फ्लेवर की तरह है। इससे बनने वाले चप्पल, शाॅल, जैकेट, स्टाल, कंबल, बैग बहुत ही ऊंचे दामों में बिकती हैं। उत्तराखंड में बिच्छू घास से बनने वाली चप्पलों की भारत के कई शहरों के अलावा विदेशों में भी बहुत अधिक मांग है फ़्रांस, अमेरिका ,नीदरलैंड ,न्यूजीलैंड में इनकी जबरदस्त मांग है।भीमल स्लीपर्स को फ्रांस से तकरीबन 10,000जोड़ी स्लीपर्स के आर्डर मिले हैं। लेकिन लोगों को जानकारी के अभाव के कारण व उत्पादन कम होने से आपूर्ति पूरी नहीं हो पा रही है।
इसीलिए फिलहाल 4,000 जोड़ी चप्पल की मांग को ही पूरा किया गया है।हालाँकि उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में ऐसी कई संस्थाएं मौजूद हैं जो बिच्छू घास से बनने वाले उत्पादों को तैयार कर रही हैं और देश दुनिया का परिचय बिच्छू घास से बनने वाले उत्पादों से करा रही हैंकंडाली बिच्छू घास जैसी ही न जाने कितनी ही जड़ी- बूटियों के भण्डार से पहाड़ भरा पड़ा हैं।
लेकिन स्पष्ट और कारगर नीति न बनने के कारण ये औषधीय पौधे अब अपने अस्तित्व को ही खो रहे हैं। ऐसे में जरूर है सरकार जुल्मलेबाजियों से इतर इस ओर गम्भीरता से ध्यान दे ताकि यह न केवल किसानों के लिए फायदेमंद हो बल्कि इसका वजूद भी जिंदा रह सके। लेकिन कारगर और स्पष्ट नीति न बनने से इनकी पहचान विलुप्त होती जा रही है। ऐसा ही एक पहाड़ के गांवों में कंडाली के नाम से विख्यात बिच्छू घास है जिसकी उपयोगिता की बातें भले ही सरकारें जब-तब करती रही हो लेकिन धरातल पर अमलीजामा न पहनाये जाने से बिच्छू घास का अस्तित्व ही अब संकट में आ गया है। उत्तराखंड जैवविविधता से भरापूरा राज्य है।
यहां प्रकृति ने वनस्पतियों के रूप में काफी कुछ दिया है, जिनका सही मायने में मानव कल्याण के लिए उपयोग व राज्य के विकास में काम किया जाना बाकी है।ऐसे में पहाड़ के इस हुनर को यदि सरकार प्रोत्साहन देती हैं तो निश्चित तौर पर यह प्रयास उत्तराखंड के लोगों को स्वरोगार प्रदान करने के साथ-साथ देश को विश्व पटल विशेष सम्मान दिला सकता है।हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में बंजर भूमि, खेतों और सड़कों के किनारे प्राकृतिक रूप से उगने वाली कंडाली. जिसे छूने से लोग डरते हैं, वहीं दूसरी ओर यह पौधा औषधीय गुणों और आय के स्रोत दोनों ही दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है.कंडाली के महत्व को जानने के बाद १९४० से अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रिया और जर्मनी में औद्योगिक फसल के रूप में इसकी खेती की जाती है.
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)