जनसंख्या (population) के आधार पर परिसीमन से पर्वतीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व हो जाएगा बहुत कम
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
बीते एक दशक में उत्तराखंड में पलायन तेजी से बढ़ा है, गाँव के गाँव वीरान हो गये हैं बहुत से गाँवों में सिर्फ वो लोग बचे हैं, जिनके पास कोई विकल्प नहीं है या जो बुजुर्ग हैं और जीते जी अपनी पुश्तैनी देहरी को छोड़ना नही चाहते। कभी पहाड़ के ग्रामीण क्षेत्र की हालत सुधरेगी यहां पर कनेक्टीविटी और इन्फ्रास्ट्रक्चर, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और रोजी-रोटी की तलाश में बाहर गये इन गांवो के ग्रामीण और युवा फिर से घर वापसी करेंगे।
इस आस की बदौलत आज भी उत्तराखंड के गांवो में अपने माटी को सर माथे लगाये न्यूनतम सुविधाओं में जीवन यापन करते बुजुर्ग जिन्दा हैं। ये कहना है उत्तराखंंड के टिहरी जिले के राजेन्द्र नौटियाल का जो की क्यार्दा ग्राम पंचायत के निवासी है और काम की वजह से गाँव छोड़कर टिहरी के शहरी क्षेत्र में बस गये हैं। 1938 में पृथक राज्य की मांग हेतु श्रीदेव सुमन ने दिल्ली में गढ़देश सेवा संघ के नाम से संघटन बनाया।
जिसका नाम बदलकर बाद में हिमालय सेवा संघ कर दिया गया। 1946 में हल्द्वानी में बद्रीदत्त पाण्डे की अध्यक्षता में हुई कांग्रेस के एक सम्मेलन में उत्तरांचल के पर्वतीय भूभाग को विशेष वर्ग में रखने की मांग उठाई गई।
1987 में ही 23 अप्रैल को एक विशेष घटना तब घटी जब उक्रांद उपाध्यक्ष त्रिवेन्द्र पंवार ने राज्य की मांग को लेकर संसद में एक पत्र बम फेंका। इसके लिए उन्हें भारी यातनाएं दी गयी। 1987 में ही भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी की अध्यक्षता में अल्मोड़ा के पार्टी सम्मेलन में उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य का वर्जा देने की मांग को स्वीकार किया गया, लेकिन प्रस्तावित राज्य का नाम उत्तराखण्ड के बजाए उत्तरांचल स्वीकार किया गया।
1988 में भाजपा के शोबन सिंह जीमा की अध्यक्षता में ‘उत्तरांचल उत्थान परिषद’ का गठन किया गया। फरवरी 1989 में सभी संगठनों ने संयुक्त आंदोलन चलाने के लिए ‘उत्तरांचल संयुक्त संघर्ष समिति’ का गठन किया और 11-12 फरवरी को रैली आयोजित किया। 1990 में जसवंत सिंह विष्ट ने उत्तराखंड क्रांति दल के विधायक के रुप में उ.प्र. विधानसभा में पृथक राज्य का पहला प्रस्ताव रखा पर्वतीय राज्य उत्तराखंड के विकास का ताना बाना राज्य की भूमि, जिसमें भौगोलिक स्वरूप व भूगर्भीय संवेदनशीलता सम्मिलित है, पर्यावरण जिसमें वन एवं जैव विविधता सम्मिलित है तथा पारिस्थितिकी, जिसमें मुख्यत: यहां के लोगों की जीवन परिस्थितियां सम्मिलित हैं, के बीच समुचित तालमेल बिठाकर ही बुना जाना चाहिए।
किसी भी एक पक्ष को अनदेखा करना घातक हो सकता है।अतीत में अज्ञानतावश जो भी हुआ है, उसको पीछे छोड़कर नए सिरे से विचार कर विकास का भावी स्वरूप तय किया जाना आवश्यक है। सभी लोगों का इस स्वरूप को समझना भी आवश्यक है कि क्षेत्र के विशेष भौगोलिक स्वरूप, लोगों की परिस्थिति और विकास की आवश्यकता के कारण ही पृथक पर्वतीय राज्य उत्तराखंड की मांग उठी और राज्य का निर्माण भी किया गया। परंतु एक स्पष्ट दृष्टिकोण के अभाव में राज्य का समुचित विकास नहीं हो पाया और बुनियादी जरूरतों के अभाव में पहाड़ से लोग पलायन करते गए।शायद विकास की जरूरत और क्षेत्रों की स्थिति के विषय में एक दृष्टि का अभाव इसका कारण रहा है।
पहाड़ में आदमी पहले रह ही रहा था तथा भौगोलिक स्वरूप और पर्यावरण से समुचित तलमेल भी उसने बिठा लिया था। फिर ऐसा क्या कारण रहा होगा कि राज्य बन जाने के बाद ही बेतहाशा पलायन बढ़ा है? क्यों आखिर दवा ही दर्द का सबसे बड़ा कारण बन गया? यदि राज्य में थोड़ा बहुत भाभर या तराई का क्षेत्र नहीं होता तो अधिकतर पलायन राज्य के बाहर ही हुआ होता।ऐसा नहीं है कि पहाड़ी भूभाग रहने लायक ही नहीं है।
शुद्ध हवा, हरे भरे वन, निर्मल जल, शीतल हवा, कोलाहल की कमी आदि इस क्षेत्र के ऐसे गुण हैं, जो एक शांत और सुखी जीवन के लिए इसे रहने के लिए आदर्श स्थान बनाते हैं, पर जीवन की कुछ बुनियादी जरूरतों के लिए यहां के आदमी को क्षेत्र छोड़ने और पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा है। यदि उसकी ये जरूरतें पूरी हो जाती, जिस हेतु पृथक पर्वतीय राज्य उत्तराखंड की मांग भी उठाई गई तो राज्य बनने पर जरूरतें पूरी होने पर उसे अपनी बसी बसाई दुनिया छोड़ने को विवश नहीं होना पड़ता।
पैसे वाले बाहर से आकर उसकी जमीन खरीद कर शानदार मकान और रिजॉर्ट बना ही रहे हैं। उत्तराखंड का डेमोग्राफिक स्वरूप बदलता जा रहा है। इस तथ्य पर शासकों को अवश्य ध्यान देना चाहिए।पहाड़ कहकर मुद्दे से पल्ला झाड़ लेना भी सही नहीं कहा जा सकता है।
पहाड़ वाले भूभाग में अन्यत्र भी उन्नति हुई है। भूगर्भीय संवेदनशीलता को भी दोष देना उचित नहीं है, क्योंकि जापान ने ज्वालामुखी विस्फोट के लिए संवेदनशील होने के बावजूद परिस्थितियों से तालमेल बिठाते हुए बहुत अच्छी उन्नति की है तथा जीवन और आवश्यकता को ढाला है। उटपटांग काम कर अपने अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन करना भी बुद्धिमानी नहीं है और न अपनी अच्छी खासी बसासत छोड़कर मैदानी भूभाग के दड़बों में रहना बुद्धिमानी है। वहां के संसाधनों पर भी तो अतिरिक्त जनसंख्या का दबाव पड़ रहा है और पहाड़ की उनकी जमीन अनुपयोगी होती जा रही है और मकान खंडहर। विकास की नीति स्थलों के अनुरूप होनी चाहिए।
उत्तराखंड स्थापना दिवसराज्य ने 22वें साल में किया है आज उत्तराखंड ने अपनी स्थापना के 22 साल पूरे कर लिए हैं। उत्तराखंड राज्य पाने के लिए आंदोलनकारियों ने लंबा संघर्ष किया था। लाठियां और गोलियां खाई थीं। 42 शहादतों के बाद उत्तराखंड बना था। पलायन की यह गति बेहद भयावह है।
आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड सुदूर पर्वतीय इलाकों से रोजाना औसतन 246 लोगों का पलायन हो रहा है। अगर इसी गति से पलायन जारी रहा तो उत्तराखंड का पूरा राजनीतिक भूगोल बदल जाएगा। पलायन के चलते राज्य की विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों का दायरा नए सिरे से निर्धारित करने की नौबत आ सकती है। इसके अलावा भी कई दूसरी सामाजिक-आर्थिक समस्याएं पैदा हो सकती हैं। यह तथ्य गैर लाभकारी संगठन इंटीग्रेटेड माउंटेन इनीशिएटिव (आईएमआई) द्वारा जारी स्टेट ऑफ द हिमालय फार्मर्स एंड फार्मिंग के अध्ययन में उभरकर सामने आए हैं।
माना जा रहा है कि ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों की विधानसभा सीटें परिसीमन के बाद कम होंगी, जबकि शहरी विधानसभा क्षेत्र बढ़ जाएंगे। 2002में परिसीमन के बाद जनसंख्या कम होने से ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों की सीटें 40 से घटकर 34 और शहरी क्षेत्रों की सीटें30 से बढ़कर 36 हो गई थीं।
जानकार उत्तराखंड के लिए इसे खतरनाक ट्रेंड बता रहे हैं। उनका कहना है कि जनसंख्या के आधार पर परिसीमन जारी रहा तो ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व खत्म हो जाएगा और ऐसे क्षेत्रों की आवाज विधानसभा तक नहीं पहुंच पाएगी। सरकार का ध्यान गांवों की बजाय शहरों पर अधिक है। सरकार को छोटी-सी आबादी वाले ग्रामीण क्षेत्रों का विकास मुश्किल लगता है, इसलिए उसका जोर है कि लोग शहरों में आएं और उन्हें वहीं इकट्ठा सारी सुविधाएं दे दी जाएं। इस कारण गांव उपेक्षित रह जाते हैं।
गोविंद सिंह बताते हैं, 1960-80 के दौरान लोग नौकरी की तलाश में दिल्ली-मुंबई पलायन करते थे। लेकिन 2000 के बाद सुविधाओं की चाह में उत्तराखंड में आंतरिक पलायन ज्यादा हो रहा है। लोग गांव छोड़कर कस्बों, तहसीलों और जिला मुख्यालयों में बस रहे हैं। यही वजह है, ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों की विधानसभा सीटें कम हो रही हैं जबकि शहरी और मैदानी इलाकों की सीटें बढ़ रही हैं। सभी राजनीतिक दल खाली हो रहे पहाड़ी गांवों को आबाद एवं खुशहाल बनाने की कुंजी अलग पर्वतीय राज्य (उत्तराखंड) में देखते-दिखाते रहे। इसे सामाजिक विडंबना कहें या राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव कि जिसे प्रमुख आधार मान कर पर राज्य आंदोलन चलाया गया, राज्य बनने के 21 वर्ष बाद भी
पलायन प्रदेश की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में खड़ा है।
राज्य बनने के 17 साल बाद पलायन आयोग का गठन होना ही राज्य की सर्वोच्च प्राथमिकता की घोर उपेक्षा का प्रमाण है। इतना ही नहीं, आयोग की संस्तुतियों पर हुई प्रगति का कोई आकलन न होना भी तंत्र की लापरवाही को ही इंगित करता है। जबकि आयोग के अध्यक्ष मुख्यमंत्री स्वयं होते हैं। केंद्र सरकार की चिंता तथा किए जा रहे प्रामाणिक कार्य प्रदेश की सरकारों पर सवालिया निशान भी रखते हैं। नि:संदेह प्रदेश सरकार पर्वतीय क्षेत्रों के लिए आर्थिक रूप से उतना नहीं कर सकती जितना कि केंद्र, लेकिन जन जागरूकता, उचित वातावरण, स्थानीय स्तर पर स्वरोजगार एवं नागरिक सुविधाएं उपलब्ध कराना तो प्रदेश सरकार का ही दायित्व बनता है। इन बिंदुओं पर अगर अब तक आई सरकारों का आकलन किया जाए तो तस्वीर निराशाजनक ही दिखती है। हर काम के लिए केंद्र की ओर ताकना भी तो अपनी नाकामी ही मानी जाएगी।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)