उत्तराखंड: बरसाती मौसम में आसमानी आफत से सिहर उठते हैं पहाड़वासी
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
मानसून सत्र हिमालयी गांवों के लिए आफत बनकर आता है। लगभग तीन माह सड़क, रास्ते, बिजली, पानी, संचार का संकट बना रहता है। आपदाग्रस्त गांवों का हाल सबसे बुरा है। वहां लोग रात को जागकर आसमान ताकते हैं। वर्षा होते ही सिहर उठते हैं। हालांकि आपदाग्रस्त 25 गांवों के परिवारों की सूची जिला प्रशासन ने तैयार की है। लेकिन उनके पुनर्वास को लेकर अब तक ऐतिहासिक कदम नहीं उठ सके हैं। रसात का मौसम है और इन दो ढाई महीनों में उत्तराखंड के पहाड़ों में आफत बरसती है और ये आपदा प्रदेश बन जाता है। हर साल आपदाग्रस्त और भुतहा गांवों की संख्या बढ़ रही है। यात्रा के लिए यहां आने वाले लोग ही नहीं यहां के मूल निवासी भी इन दिनों पहाड़ चढ़ने से परहेज करते हैं। कच्चे पैदल मार्ग भी टूट जाने से मरीजों को अस्पताल तक ले जाना मुश्किल है। कोई महिला कई मील चल कर अस्पताल के रास्ते में बच्चे को जन्म दे रही है तो कई घायल और बीमार वहां तक जाने के लिए सांसे नहीं बचा पा रहे हैं। खतरे की जद में आने के बाद लोग घर गांव छोड़ कर राहत शिविरों में रह रहे हैं तो कई हजार की आबादी सड़के टूट जाने से अपने इलाके में बंधी सी है। कुल मिलाकर कभी जिस पहाड़ की हरियाली बरसात में देखते ही बनती थी अब बरसात उससे मोहभंग होने की सीजन बन गया है।
उत्तराखंड प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से अति संवेदनशील राज्य है। राज्य गठन के 23 वर्षों में आपदाओं ने भी राजनीति को धार दी। जब-जब राज्य पर आपदाओं ने कहर बरपाया, राजनीतिक दलों ने इसे एक-दूसरे पर निशाना साधने के लिए हथियार बनाया। लेकिन, राज्य के लिए नासूर बन चुकी इन आपदाओं के जख्मों का मरहम तलाशने के लिए कभी भी किसी राजनीतिक दल ने चुनावी मुद्दा नहीं बनाया। राज्य गठन के बाद से इस मुद्दे पर राजनीति भी खूब हुई।कई बार आपदाएं सियासत में वार-पलटवार का हथियार बनीं। सड़क से लेकर विधानसभा के पटल पर इसे लेकर बहस भी होती रही। राजनीतिक दल सवाल तो उठाते रहे, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं है। राजनीतिक दलों के स्तर पर इन आपदाओं से निपटने, इनकी मारकता को कम करने, इनके न्यूनीकरण के संबंध में आज तक कोई ठोस रणनीति नहीं बनी। उत्तराखंड को देश में ऐसे राज्य का दर्जा प्राप्त है, जिसने पहली बार अपने राज्य में वर्ष 2005 में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास विभाग का गठन किया है। इस विभाग के गठन के बाद आपदाओं के न्यूनीकरण और उससे निपटने के इंतजामों में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन हालात अभी भी बहुत अच्छे नहीं हैं। हम जिस प्रदेश में रहते हैं, उसकी प्रकृति अलग तरह की है। हम आपदाओं के साथ जीते हैं, लेकिन राजनीतिक पार्टियां पर्यावरण के महत्व को नहीं समझ पा रही हैं। लोग भी संजीदा नहीं हैं।
आपदा से पीड़ित लोग ही चुनाव के समय ऐसे मुद्दों से मुंह फेर लेते हैं। जबकि उनके लिए वही सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए। दूसरा यह भी देखने को मिलता है कि जिस क्षेत्र में आपदा आती है, वहां के लोग तो इस मुद्दे को उठाते हैं, लेकिन दूसरे क्षेत्रों के लोगों के लिए यह मुद्दा नहीं रहता। जबकि सभी लोगों को इस मुद्दे पर राजनीतिक पार्टियों को साधने का काम करना चाहिए। दबाव बनाना चाहिए कि वह अपने घोषणापत्र में क्षेत्र विशेष ही सही, आपदा से पीड़ित लोगों, पुनर्वास और इसके न्यूनीकरण केलिए क्या काम करेंगे। आमतौर पर राजनीतिक दल मानते हैं कि चुनाव धर्म, जाति, भाषा, प्रांत जैसे मुद्दों पर जीत जाते हैं। पैसे बांटने और तमाम तरह के प्रलोभन भी दिए जाते हैं। लेकिन
पिछले कुछ सालों में तस्वीर बदली है। जनता मतदान के समय अब मुद्दों पर बात करना पसंद करती है। उत्तराखंड में महंगाई, सुरक्षा व्यवस्था, सुशासन, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के साथ प्राकृतिक आपदाएं भी एक बड़ा मुद्दा है। इसलिए राजनीतिक पार्टियां चाहकर भी इससे भाग नहीं सकती हैं। जनता मूक भले ही हो, पर बुद्धिहीन नहीं होती। जलवायु परिवर्तन का नजारा भी देख लिया। इसके बाद भी किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में जलवायु परिवर्तन को लेकर, राज्य के पर्यावरण संरक्षण को लेकर नीतिगत रूप से कोई बिंदु न होना दुर्भाग्यपूर्ण है। अब भी समय है, जब राजनीतिक दलों को इस विषय में गंभीरता से सोचना चाहिए। विडम्बना यह है इस ओर हमारे दायित्व के प्रति हम सबने आंखें मूंद रखी हैं।
(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)