गुणों से युक्त हैं बाकला (Bakla)
हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत में खेती में इसका क्षेत्र परिभाषित नहीं किया गया है क्योंकि यह असंगठित है। यह पूर्वी भारत, उत्तराखंड और देश के आदिवासी क्षेत्रों में प्रचलित है और गरीबों को पोषण सुरक्षा प्रदान कर सकती है। खेती के इतिहास का सभ्यता के विकास के साथ अटूट सम्बन्ध है। इसी के आधार पर मनुष्य अपने समाज की संरचना कर पाया। परन्तु दुर्भाग्यवश इतिहासकारों का ध्यान भारतीय खेती के इतिहास, विशेषकर हिमालयी खेती की ओर अधिक नहीं गया है। खेती का इतिहास लिखना जटिल कार्य है और हमें अपनी सीमाओं का पूरा भान है। फिर भी इस आशा के साथ यह प्रयास किया जा रहा है कि शोधार्थी भविष्य में समें सुधार कर सकेंगे। खेती के इतिहास का प्रारम्भ पश्चिम एशिया में दजला-फराद की घाटियों में पाषाण युग में माना जा सकता है। तदुपरान्त सिन्धु सभ्यता में भी खेती के पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं। भारतीय खेती पर बौद्ध धर्म ग्रन्थों के अतिरिक्त मैगस्थनीज (300 ई.पू.), फाह्यान (300-345 ई.पू.), ह्वेनसांग (629-641 ई.) तथा अलबरूनी (1031 ई.) के यात्रा वृतान्तों से जानकारी मिलती है। कृषि पराशर (950-1000 ई.) तथा कृषि सूक्ति (1000 ई.) में भी एक क्रमिक वर्णन प्राप्त होता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (300 ई.पू.) में भी भारतीय खेती की व्यवस्था का वर्णन है।
उत्तराखण्ड का उन्नत शिखरों तथा गहन घाटियों से परिपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र तराई से जुड़ा है। राजनैतिक उथल-पुथल के कारण उत्तराखण्ड का अनेक बार पुनर्गठन किया गया। 1815 में जिला कुमाऊं, टिहरी रियासत तथा देहरादून बने। सरकार द्वारा कुमाऊं को भी दो जिलों में बाँट दिया गया। कुमाऊं तथा ब्रिटिश गढ़वाल. कालान्तर में इसमें एक जिला तराई नाम से बना दिया गया। पुनः कुमाऊं व तराई के स्थान पर अलमोड़ा तथा नैनीताल जिले बनाये गये। स्वाधीनता के बाद अलमोड़ा जिले से सोर क्षेत्र को पृथक करके पिथौरागढ़, अपर गढ़वाल को चमोली तथा टिहरी के ऊपरी हिस्से को उत्तरकाशी जिला बनाया गया। उत्तराखण्ड क्षेत्रफल तथा जनसंख्या में संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनेक सदस्य राष्ट्रों से बड़ा है उनके मुताबिक, बाकला की खेती बढ़ाने से दुनिया को मदद मिलेगी क्योंकि इन फलीदार पौधों की जड़ में सहजीवी रूप से रहने वाले लाभकारी माइक्रोब्स होते हैं, जो मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए वायुमंडलीय नाइट्रोजन को कम कर सकते हैं। सर्दियां जब खत्म होती हैं तो सब्जीवालों के ठेले पर एक अलग सी फलीदार सब्जी दिखने लगती है। कुछ दिनों के लिए ही वे बाकला की फली या फाबा बीन्स (विसिआ फाबा) लाते हैं। अगर आप उनके नियमित ग्राहक हैं तो निश्चित तौर पर वे आपसे इस मौसमी सब्जी को लेने का आग्रह करेंगे और कहेंगे, च्च्बाजार में यह बहुत कम आती है।हालांकि बाकला की फली बाजार में बहुत कम दिखती है लेकिन इसके इस्तेमाल की परंपरा काफी पुरानी है। यह उन पुराने आहारों में से एक है, जिसे 10,200 साल पहले घरेलू तौर पर उपयोग में लाया जाने लगा था।
हाल ही में फाबा बीन्स के पूर्वजों का पहला और एकमात्र अवशेष इजराइल के माउंट कार्मेल में एल-वाड के पुरातत्व स्थल में पाया गया था। ये 14,000 साल पुराने जंगली नमूने भी इनके उत्तरी इजरायल के इलाकों में घरेलूकरण का समर्थन करते हैं। इसका हिंदी नाम बाकला, इसके इथियोपियाई नाम बकेला और तुर्की के नाम येशिल बाकला के जैसा ही है। इसकी फलियां भूमध्यसागरीय इलाकों के साथ-साथ भारत, पाकिस्तान और चीन में एक प्रमुख पारंपरिक भोजन हैं। नाश्ते के लिए भुने और नमकीन बीजों को छोड़कर, उत्तरी यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसकी खपत कम है।प्रोटीन से भरपूर होने के साथ ही बाकला की फलियों का एक और फायदा दवा के रूप में भी है। ये एमिनो एसिड, एल-डोपा की अच्छी स्रोत होती हैं, जिसे हैप्पी हार्मोन के रूप में जाना जाने वाला डोपामाइन बनता है। यह हार्मोन हमें खुश रखता है और हमारे सोचने और योजना बनाने की क्षमता में खास भूमिका भी निभाता है। अनुमान के मुताबिक, 100 ग्राम ताजा बाकला फली में 50 से 100 मिलीग्राम एल-डोपा पाया जा सकता है। एल-डोपा की मौजूदगी के चलते यह फली पार्किंसन बीमारी में भी लाभदायक है।
इस बीमारी में तंत्रिका तंत्र पर असर होता है जिससे चलना फिरना मुश्किल हो जाता है।इन फायदों केबावजूद इनका सेवन सावधानी से करना चाहिए क्योंकि कच्ची फलियों में पोषण-विरोधी कारक, विसिन और कोनविसिन होते हैं। ये उन लोगों में फेविसम पैदा कर सकते हैं जिनमें ग्लूकोज-6-फॉस्फेट डिहाइड्रोजनेज नामक एंजाइम नहीं है। विसिन और कोनविसिन लाल रक्त कोशिकाओं को नष्ट करते हैंऔर हेमोलिटिक एनीमिया का कारण बनते हैं जिसके परिणामस्वरूप पीलिया और मूत्र का काला पड़ना, जैसी बीमारी हो सकती है। गौरतलब है कि विश्व की करीब ४ से ५ फीसदी आबादी फेविसम के प्रति संवेदनशील है। शोधकर्ताओं ने इसकी ऐसी किस्में विकसित कर ली हैं, जिनमें ये तत्व नहीं होते। इनको हटाने के पारम्परिक तरीकों का इस्तेमाल ज्यादा आसान है। यह कई प्रकार और वातावरण के अनुरूप विविधता वाली फसल है। कॉमन बीन (फेसियोलस वलगरिस) के कई प्रकार दुनियाभर में मिलते हैं। इनकी सबसे बड़ी खासियत है कि लैग्यूम प्रजाति के अन्य पौधों के मुकाबले ये राइजोबियल की कहीं अधिक प्रजातियों को आश्रय देती हैं। इससे से संभभवत: कॉमन बीन्स को अपने मूल स्थान से परे भी दुनिया के विभिन्न वातावरण में फलने-फूलने का मौका मिला। यह विभिन्न वातावरण में भी नाइट्रोजन की जरूरत को पूरी कर लेते हैं जिससे यह लैग्यूम की सबसे लचीली प्रजातियों में से एक है।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)